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________________ व्रतनाम अतिकम व्यतिक्रम अतिचार अनाचार आभोग सम्यग्दर्शन- शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा अन्यदृष्टिसंस्तव अहिंसाणुवत- बन्धन पीडन छेदन अतिभारारोपण अन्न-पाननिरोध सत्याणुव्रत- परिवाद रहोऽभ्याख्यान पेशन्य कूटलेखकरण न्यासापहार अचौर्याणुवत- विरुद्धराज्यातिक्रम सदृशसम्मिश्रण हीनाधिकविनिमान चौरप्रयोग चौरार्थादान ब्रह्मचर्याणुव्रत- अन्यविवाहकरण विटत्व अनंगक्रीड़ा विपुलतृषा इत्वारिकागमन परिग्रहपरिमाणव्रत-विस्मय अतिलोभ अतिवाहन अतिभारारोपण अतिसंग्रह (रत्नकरण्डश्रा के अनुसार) दिग्वत- ऊर्ध्वव्यतिक्रम अधोव्यतिक्रम तिर्यग्व्यतिक्रम अवधिविस्मरण क्षेत्रवृद्धि देशव्रत- रूपानुपात शब्दानुपात पुद्गलक्षेप आनयन प्रेष्य-प्रयोग अनर्थदण्डव्रत- कन्दर्प कौत्कुच्य मौखर्य असमीक्ष्याधिकरण अतिप्रसाधन सामायिक- मनोदुःप्रणिधान वचोदुःप्रणिधान कायदुःप्रणिधान अनादर विस्मरण प्रोषधोपवास- अदृष्टमृष्टग्रहण अ०म०विसर्ग अ०म०आस्तरण अनादर विस्मरण भोगोपभोगपरिमाण-विषय-विषतोऽनुप्रेक्षा अनुस्मृति अतिलौल्य अतितृषा , अतिअनुभव अतिथिसंविभाग-हरित-पिधान हरित-निधान मात्सर्य अनादर विस्मरण सल्लेखना-भय मित्रानुराग जीविताशंसा मरणाशंसा निदान उपर्युक्त वर्गीकरण रत्नकरण्ड-वणित अतिचारोंका लक्ष्यमें रखकर किया गया है, क्योंकि ये अतिचार सबसे अधिक युक्ति-संगत प्रतीत होते हैं। तथा भोगोपभोग व्रतके अतिचारोंमें जो विसंगति ऊपर बताई गई है, वह भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें वर्णित-अतिचारोंमें नहीं रहती है। सारे कथनका सार यह है कि सभी अतिचारोंको एक-सा न समझना चाहिए, किन्तु प्रत्येक व्रतके अतिचारोंमें व्रतभंग संबंधी तर-तमता है, उनके फलमें और उनकी शुद्धि में भी तर-तमतागत भेद है, भले ही उन्हें अतिचार, व्यतीपात मल या दोष जैसे किसी भी सामान्य शब्दसे कहा गया हो। यहाँ इतना विशेष और ज्ञातव्य है कि ये पाँच-पाँच अतीचार स्थूल एवं उपलक्षण रूप हैं, अतः जैसा भी व्रतमें दोष लगे, उसे यथासंभव तदनुकूल अतीचारमें परिगणित कर लेना चाहिए। यथार्थमें तो अतिकम, व्यतिक्रम आदिके भी गणनातीत सूक्ष्म भेद होते हैं, जिन्हें ज्ञानी एवं जागरूक श्रावक स्वयं हो जानने और उनको संशुद्धि करने में सावधान रहता है। जिस प्रकार अहिंसाणुव्रत आदिके अतीचार बताये गये हैं, उसी प्रकारसे सप्त व्यसनों तथा मद्य, मांस, मधु त्यागके भी अतीचार बतलाये गये हैं । वे इस प्रकार हैं१. धूतव्यसन त्यागके अतीचार-होड़ लगाना, सौदा-सट्टा करना, हार जीतकी भावनासे ताश-पत्ते आदि खेलना। २. वेश्याव्यसन त्यागके , -गीत, संगीत और वाद्योंकी ध्वनि सुननेमें आसक्ति, व्यभिचारी जनोंकी संगति, वेश्यागृह-गमनादि, सिनेमानाटकादि देखना। -Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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