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________________ ( १११ ) घुसनेका प्रयत्न करना अतिचार नामका दोष है। पुनः खेत में घुसकर एक ग्रास घास या धान्यको खाकर वापिस लौट आवे, तो यह अनाचार नामका दोष है। किन्तु जब वह निःशंक होकर और खेतके भीतर घुस कर यथेच्छ घास खाना है और खेतके स्वामी द्वारा डण्डोंसे पीटे जानेपर भी घास खाना नहीं छोड़ता तो आभोग नामका दोष है। जिस प्रकार अतिक्रमादि दोषोंको बूढ़े बैलके ऊपर घटाया गया है, उसी प्रकारसे व्रतोंक ऊपर-भी घटिनकर लेना चाहिये । इस विवेचनसे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि अतिक्रमादि पाँच प्रकारके दोषोंको ध्यान में रखकर ही प्रत्येक व्रतके पाँच पाँच अतिचार बतलाये गये हैं। श्रावकधर्मका वर्णन करनेवाले जितने भी ग्रन्थ हैं उनमेंसे व्रतोंके अतिचारोंका वर्णन श्वे० उपासकदशांगसूत्र और तत्त्वार्थसूत्रमें ही सर्व प्रथम दृष्टिगोचर होता है। तथा श्रावकाचारोंमेंसे सर्वप्रथम रत्नकरण्डश्रावकाचारमें अतिचारोंका वर्णन पाया जाता है। जब तत्त्वार्थसूत्र-वर्णित अतिचारोंका उपासकदशांगसूत्रसे जो श्वेताम्बरों द्वारा सर्वमान्य है--तुलना करते हैं, तो यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि एकका दूसरे पर प्रभाव ही नहीं है, अपितु एकने दूसरेके अतिचारोंका अपनी भाषामें अनुवाद किया है । यदि दोनोंके अतिचारोंमें कहीं अन्तर है तो केवल भोगोपभोगपरिमाण व्रतके अतिचारोंमें है। उपासकदशासूत्रमें इस व्रत अतिचार दो प्रकारसे बतलाए हैं-भोगतः और कर्मतः । भोगकी अपेक्षा वे ही पांच अतिचार बतलाये गये हैं जो तत्त्वार्थसूत्रमें दिये गये हैं। कर्मकी अपेक्षा उपासकदशासूत्रमें पन्द्रह अतिचार कहे गये हैं जो कि खर-कर्मके नामसे प्रसिद्ध हैं और पं० आशाधरजीने सागारधर्मामृतमें जिनका उल्लेख किया है। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि उपासकदशामें कर्मकी अपेक्षा जो पन्द्रह अतिचार बतलाये गये हैं, उन्हें तत्त्वार्थसूत्रकारने क्यों नहीं बतलाया ? मेरी समझसे इसका कारण यह प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार व शीलेषु पंच-पंच यथाक्रमम्' इस प्रतिज्ञासे बंधे हुए थे, इसलिए उन्होंने व्रतके पाँच-पाँच ही अतिचार बताये । पर उपासकदशाकारने इस प्रकारकी कोई प्रतिज्ञा अतिचारोंके वर्णन करनेके पूर्व नहीं की, अतः वे पाँचसे अधिक भी अतिचारोंके वर्णन करनेके लिए स्वतन्त्र रहे हैं। . __तत्त्वार्थसूत्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार-वर्णित अतिचारोंका जब तुलनात्मक दृष्टिसे मिलान करते हैं, तो कुछ व्रतोंके अतिवारोंमें एक खास भेद दृष्टि-गोचर होता है। उनमेंसे दो स्थल खास तौरसे उल्लेखनीय हैं--एक परिग्रह-परिमाण व्रत और दूसरा भोगोपभोगपरिमाणवत । तत्त्वार्थसूत्र में परिग्रहपरिमाणवतके जो अतिचार बताये गये हैं, उनसे पाँचकी एक निश्चित संख्याका अतिक्रमण होता है। तथा भोगोपभोगव्रतके जो अतिचार बताये गये हैं, वे केवल भोगपर ही घटित होते हैं, उपभोग पर नहीं, जबकि बतके नामानुसार उनका दोनोंपर ही घटित होना आवश्यक है। रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी समन्तभद्र जैसे तार्किक आचार्यके हृदयमें उक बात खटकी और इसीलिए उक्त दोनों ही व्रतोंके एक नये ही प्रकारके पाँच-पांच अतिचारोंका निरूपण किया जो कि उपर्युक्त दोनों आपत्तियोंसे रहित हैं। । यहाँ पर सम्यग्दर्शन, बारह व्रत और सल्लेखनाके अतिचारोंका अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार और आभोग इन पाँच प्रकारके दोषोंमें वर्गीकरण किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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