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________________ ८. जो व्यक्ति निर्दोष पूर्व प्रतिमाओंको पालते हुए गृहस्थीके सभी प्रकारके आरम्भोंका परित्याग कर और स्वीकृत धनका भी याचकोंको दान करता हुआ घरमें उदासीन होकर रहता है वह उत्तम आरम्भत्यागप्रतिमाका धारक है। जो पूर्वोक्त प्रतिमाओंका सदोष पालन करते हुए आठवी प्रतिमाका निर्दोष पालन करते हैं, वे मध्यम हैं और जो पूर्वोक्त व्रतोंको और इस प्रतिमाका यदा-कदाचित् सदोष पालन करते हैं वे जघन्य आरम्भत्यागप्रतिमाके धारक हैं । (धर्मर० पृ० ३५० श्लोक ३६) ९. जो पूर्वकी आठों प्रतिमाओंका निर्दोष पालन करता हआ अपने संयमके साधनोंके सिवाय शेष समस्त प्रकारके बाह्य परिग्रहका त्यागकर उसे निर्दोष पालन करता है, वह उत्तम परिग्रहत्यागप्रतिमाका धारक है। जो पूर्वोक्त प्रतिमाओंका निर्दोष पालन करता हुआ भी इसे यथा कथंचित् पालन करता है अर्थात् त्यक्त परिग्रहमें क्वचित् कदाचित् ममत्वभाव रखता है तो वह मध्यम परिग्रहत्यागप्रतिमाधारी है। तथा पूर्व व्रतोंको और इस प्रतिमाको भी दोष लगाते हुए पालन करता है, वह जघन्य परिग्रहत्यागप्रतिमाका धारक है। (धमर० पृ० ३५४ श्लोक ४४) १०. जो पूर्वोक्त प्रतिमाओंके निर्दोष परिपालनके साथ इस लोक-सम्बन्धी सभी प्रकारके आरम्भ और परिग्रह सम्बन्धी कार्योंमें अपने पुत्रादि स्वजनोंको या परजनोंको किसी भी प्रकारकी अनुमति नहीं देता है, वह अनुमति त्यागप्रतिमाधारियोंमें श्रेष्ठ है। जो पूर्व प्रतिमाओंका निर्दोष पालन करते हुए भी क्वचित् कदाचित् पुत्रादिको लौकिक कार्योंके करनेके लिए अनुमति देता है, वह मध्यम अनुमति त्यागप्रतिमाका धारक है। जो पूर्वोक्त प्रतिमाओंको और इस प्रतिमाको भी सदोष पालन करता है, वह जघन्य अनुमति त्यागी है। (धर० पृ० ३७९ श्लोक ६७) ११. जो आदिकी दशों प्रतिमाओंका निर्दोष पालन करते हुए अपने निमित्तसे बने उद्दिष्ट आहार-पानका यावज्जीवनके लिए त्याग करता है और उसमें किसी भी प्रकारका दोष नहीं लगने देता है वह उत्कृष्ट उद्दिष्ट त्यागी है। जो पूर्व प्रतिमाओंका तो निर्दोष पालन करता है, किन्तु क्वचित् कदाचित् उद्दिष्ट त्यागमें दोष लगाता है वह मध्यम उद्दिष्ट त्यागी है। तथा जो पूर्व प्रतिमाओंका भी सदोष पालन करता है और इस उद्दिष्ट त्यागको भी यथा कथंचित् पालता है, वह जघन्य उद्दिष्ट त्यागी है। (धर्मर० पृ० ३८० श्लोक ७३) ___वास्तविक स्थिति यह है कि देशसंयम लब्धिके असंख्यात स्थान सिद्धान्त ग्रन्थोंमें बताये गये हैं। जिसके जैसा-जैसा अप्रत्याख्यानावरणकषायका क्षयोपशम बढ़ता जाता है, उसके वैसा ही संयमासंयम लब्धिस्थान भी बढ़ता जाता है। अतः प्रत्येक प्रतिमाधारीके भी अप्रत्याख्यानावरणकषायकी तीव्र-मन्दताके अनुसार संयमासंयम लब्धिके स्थान भी घटते बढ़ते रहते हैं और तदनुसार ही वह उत्कृष्ट मध्यम या निकृष्टप्रतिमाका धारक बन जाता है । किन्तु कषायोंपर विजय पानेका प्रयत्न करते रहनेपर व्रतोंका भी निर्दोष पालन होता रहता है । अतः प्रत्येक साधकको कषायोंको जीतनेका उत्तरोत्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए। १७. संन्यास, समाधिमरण या सल्लेखना श्रावकको जीवनके अन्तमें सल्लेखना धारण करनेका विधान समस्त श्रावकाचारोंमें किया गया है। वहाँ बताया गया बुढ़है कि जब [पा आजावे, शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो जावें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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