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________________ । १०७ ) अपना कार्य न कर सकें, अथवा असाध्य रोग हो जावे, भयंकर उपसर्ग वा जावे, अथवा इसी प्रकारका अन्य संकट आ जावे, तब अपने जीवन भर पालित धर्मको रक्षाके लिए शरीरको छोड़ना सल्लेखना है। इस सल्लेखनाको जीवन भर आचरण किये गये तपका फल कहा गया है। इस सल्लेखनाका ही दूसरा नाम संन्यास है । यदि अन्तिम समय शान्ति और समाधि पूर्वक मरण नहीं हुआ, तो जीवन भरका तपश्चरण और व्रत-धारण व्यर्थ हो जाता है। स्वामी समन्तभद्रने इस सल्लेखनाकी विधिका बहुत उत्तम प्रकारसे वर्णन किया है और पं० आशाधरजी आदिने उपसर्ग आदिके आनेपर शम भावसे उन्हें सहन करनेवालोंके उदाहरण देकर इस विषयका बहुत विशद वर्णन कर साधकको सावधान किया है । प्राण-घातक रोग उपसर्ग आदिके आनेपर मरनेका आभास तो प्रातः सभीको हो जाता है। किन्तु जीवनके अन्तिम समयका आभास हर एक व्यक्तिको नहीं हो पाता है, अतः कुन्दकुन्दश्रावकाचारके अन्तमें कहा गया है ___स ज्ञानी स गुणिव्रजस्य तिलको जानाति यः स्वां मृतिम् ॥ १२ ॥ अर्थात् जो व्यक्ति अपने मृत्यु-कालको जानता है, वह ज्ञानी है और गुणी जनोंका तिलक है। (देखो प्रस्तुत भाग, पृ० १३४) . अपना मरण-काल जाननेके लिए भद्रबाहु संहिता आदिमें अनेक निमित्त बताये गये हैं, जिनसे भावी मरणकालकी सूचना मिलती हैं। उनमें से पाठकोंके परिज्ञानार्थ कुछको यहाँ दिया जाता है १. प्रत्येक वस्तुके लाल दिखनेपर, वृक्षोंके जलते हुए दिखनेपर, नेत्रोंकी चमक चले जानेपर, जीभ या नासाग्र भाग आँखोंसे नहीं दिखनेपर, अपनी छायामें अपना शिर न दिखनेपर और रात्रिमें ध्रुवतारा न दिखनेपर अपना मरण-काल समीप जाने। २. दोनों कानोंमें अंगुली देनेसे शब्द नहीं सुनाई देनेपर, भौंहके टेढ़ी होनेपर, हाथकी रेखाएं नहीं दिखनेपर, छींक आनेके साथ ही मलमूत्र निकल आनेपर, दर्पण या पानीमें शिरके न दिखनेपर, सूर्य-चन्द्रमें छिद्र दिखनेपर, शरीरको छाया विपरीत दिखनेपर, हाथ-पैर आदिके छोटा दिखनेपर, थालीमें सूर्यका बिम्ब काला दिखनेपर मृत्यु समीप जाने। ३. उक्त बाह्य निमित्तोंके सिवाय जन्म कुंडलीके घातक-योगोंसे तथा हाथकी जीवन-रेखासे भी मृत्यु-काल जाना जा सकता है। अतः साधक-श्रावकको इस विषयमें सदा जागरूक रहना चाहिए। १८. अतिचारोंको पंचरूपताका रहस्य देव, गुरु, संघ, आत्मा आदिकी साक्षी-पूर्वक जो हिंसादि पापोंका-बुरे कार्योंका-परित्याग किया जाता है, उसे व्रत कहते हैं। पांचों पापोंका यदि एक देश, आंशिक या स्थूल त्याग किया जाता है, तो उसे अणुव्रत कहते हैं और यदि सर्वदेश त्याग किया जाता है, तो उसे महाव्रत कहते हैं । यतः पाप पांच होते हैं, अतः उनके त्याग रूप अणुव्रत और महाव्रत भी पांच-पांच ही होते हैं। इस व्यवस्थाके अनुसार महाव्रतोंके धारक मुनि और अणुव्रतोंके धारक श्रावक कहलाते हैं। पांचों अणुव्रत श्रावकके शेष व्रतोंके, तथा पाँचों महाव्रत मुनियोंके शेष व्रतोंके मूल आधार हैं, अतएव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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