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________________ ( १०४ ) प्रकारके अतिचारोंकी गुंजायश नहीं है, यह बात लाटीसंहिताकारने उक्त प्रतिमाके विवेचनमें बहुत स्पष्ट की है। इस चौथी प्रतिमाधारीको रात्रिमें श्मशान आदिमें जाकर रात-भर प्रतिमायोग धारण कर कायोत्सर्ग करना भी आवश्यक है, जिसका स्पष्ट विधान आचार्य जयसेनने अपने रत्नाकरमें उदाहरणके साथ इस प्रकार किया है प्राचीनप्रतिमाभिरुद्वहति चेद्यः प्रोषधं ख्यापितं तद्रात्री पितृकानने निजगृहे चैत्यालयेऽन्यत्र वा। व्युत्सर्गी सिचयेन संवृततनुस्तिष्ठेत्तनावस्पृहो दूरत्यक्तमहाभयो गुरुरतिः स प्रोषधी प्राञ्चितः ॥ ३२ ॥ (धर्मर० पृ० ३३६) वारिषेणोऽत्र दृष्टान्तः प्रोषधव्रतधारणे । रजनीप्रतिमायोगपालनेऽप्यतिदुष्करे ॥ ११ ॥ (धर्मर० पृ० ३४२) भावार्थ-जो पूर्वको तीन प्रतिमाओंके साथ इस प्रोषधव्रतको धारण करता है, तथा रात्रिके समय श्मशानमें, अपने घरमें, चैत्यालय या अन्य एकान्त स्थानमें शरीरसे ममत्व छोड़कर और निर्भय होकर कायोत्सर्गसे अवस्थित रहता है, वह व्यक्ति श्रेष्ठ प्रोषधप्रतिमाधारी है। इस अति दुष्कर रात्रिप्रतिमायोगके पालनमें और प्रोषधव्रतके धारण करनेमें वारिषेण दृष्टान्त हैं । चौथी प्रतिमाधारीके लिए रात्रिप्रतिमायोगका वर्णन पं० आशाधरने भी किया है । यथा निशां नयन्तः प्रतिमायोगेन दुरितच्छिदे । ये क्षोभ्यन्ते न केनापि तान्नुमस्तुर्यभूमिगान् ॥ ७॥ (सागार० अ०५) भावार्थ-जो अपने पाप कर्मोंके नष्ट करनेके लिए प्रतिमायोगसे रात्रिको बिताते हैं और किसी भी उपसर्गादिसे क्षोभको प्राप्त नहीं होते हैं, उन चौथी प्रतिमावालोंको नमस्कार है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि चौथी प्रतिमाधारीने १६ पहरका उपवास करना और अष्टमी या चतुर्दशीकी रात्रिको प्रतिमायोग धारण कर बिताना आवश्यक है। पर दूसरी प्रतिमाके अभ्यासीको ये दोनों बातें आवश्यक नहीं हैं। यही प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत और प्रोषधप्रतिमामें महान् अन्तर है। १६. प्रतिमाबोंके वर्णनमें एक और विशेषता प्रस्तुत श्रावकाचार-संग्रहमें संकलित श्रावकाचारोंमें श्रावककी ११ प्रतिमाओंके वर्णनमें जो विशेषता या विभिन्नता है, उसे ऊपर दिखाया गया है। आचार्य जयसेन-रचित धर्मरत्नाकरमें प्रत्येक प्रतिमाका वर्णन उत्तम, मध्यम और जघन्य रूपसे भी किया गया है। प्रतिमा-वर्णनकी इस त्रिविधताका कुछ दिग्दर्शन यहाँ कराया जाता है १. जो सप्त व्यसन और रात्रिभोजनका त्याग कर आठ मूलगुणोंके साथ शुद्ध (निरतिचार) सम्यक्त्वको धारण करता है, वह उत्कृष्ट प्रथम प्रतिमाधारी है। जो रात्रिभोजन त्यागके साथ आठ मूलगुणोंको धारण करता है और यथा संभव एकादि व्यसनका त्यागी है, वह मध्यम है। तथा जो चारित्रमोहनीयके तीव्र उदयसे एक भी व्रतका पालन नहीं कर पाता, किन्तु व्रत धारणकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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