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________________ साथ जो उपवास किया जाता है उसे प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत कहा गया है। किन्तु अकलंकदेवने प्रोषध शब्दको पर्वका पर्यायवाची माना है। तदनुसार अष्टमी आदि पर्वके दिन जो उपवास किया जाता है, उसे प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहा है। इस अर्थभेदके साथ जब प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत और प्रोषधप्रतिमाके स्वरूप पर विचार करते हैं तो दोनों में महान् अन्तर पाते हैं और उसका संकेत मिलता है स्वामी समन्तभद्रके ही द्वारा प्रतिपादित प्रोषधप्रतिमाके स्वरूपसे । जहाँ कहा गया है कि पर्वदिनेषु चर्तुष्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपरः प्रोषधानशनः ।। (र० क० श्लो० १४०) इस श्लोकका प्रत्येक पद अपनी-अपनी एक खास विशेषताको प्रकट करता है। प्रथम चरणमें पठित 'अपि' शब्द एवकारका वाचक है, जिससे यह अर्थ निकलता है कि दोनों पक्षकी दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इन चारों ही पर्वो में प्रोषधोपवास करना चौथी प्रतिमाधारीके लिए आवश्यक है । शिक्षाव्रतके भीतर यह प्रोषधोपवास अभ्यास रूप था, अतः कभी उपवास न करके एक बार नीरस भोजन, जल-पान आदि भी कर लेता था, जिसकी सूचना स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा आदिमें वर्णित इसके स्वरूपसे मिलती है। उत्तरार्घके 'मासे-मासे' और 'स्वशक्तिमनिगुह्य' पद यह प्रकट करते हैं कि प्रत्येक मासमें पर्वके दिन उपवास करना आवश्यक है, चाहे ग्रीष्म ऋतुके मासोंमें कितनी ही भयंकर गर्मी क्यों न पड़ रही हो, पर उसे चारों प्रकारके आहारका सर्वथा त्याग करके उपवास करना ही पड़ेगा। इस प्रतिमामें अपनी शक्तिको छिपानेरूप बहानेका कोई स्थान नहीं है। इसी अर्थकी पुष्टि श्लोकके तीसरे चरणसे होती है और चौथे चरणमें पठित 'प्रणधिपरः' पद तो स्पष्टरूपसे कह रहा है कि अत्यन्त सावधानी पूर्वक इस प्रतिमाका पालन करना चाहिए, तभी वह प्रोषधप्रतिमाका धारो कहा जा सकता है। स्वामी कात्तिकेयने जहाँ शिक्षावतके अभ्यासीके लिए उपवास करनेकी शक्ति न होनेपर नीरस भोजन, एकाशन आदिकी छूट दी है, वहाँ चौथी प्रतिमाधारीके लिए किसी भी प्रकारको छूट न देकर अष्टमी चतुर्दशीके पूर्व और उत्तरवर्ती दिनोंमें भी एकाशनके साथ उपवास करनेका एवं उक्त समयके भीतर धर्मध्यानादि करनेका विशद विवेचन किया है। आचार्य वसुनन्दीने जो चौथी प्रतिमाके स्वरूपमें उत्तम, मध्यम और जघन्यरूपसे उपवास करनेका विधान किया है, उसका एक खास कारण यह है कि उन्होंने प्रोषधोपवास नामका कोई शिक्षाक्त माना ही नहीं है। अतः उन्होंने चौथी प्रतिमावालेको १६, १२ और ८ पहरके उपवासकी सुविधा हीनाधिक शक्तिवाले व्यक्तियोंके लिए दी है। पर जिन-जिन आचार्योंने प्रोषधोपवास शिक्षावत माना है, उनके अनुसार चौथी प्रतिमावालेको १६ पहरका ही उपवास करना आवश्यक है, तभी उसका 'प्रोषधानशन' या प्रोषधोपवास' यह नाम सार्थक हो सकता है, अन्यथा नहीं। उपर्युक्त अर्थकी पुष्टि प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतके 'अनादर' और 'विस्मरण' नामक दो अतिचारोंसे भी होती है। और इन अतिचारोंके परिहारार्थ स्वामी समन्तभद्रने चौथी प्रतिमाके स्वरूपमें 'प्रोषधनियमविधायी और 'प्रणधिपरः' इन पदोंको कहा है । व्रत प्रतिमाके अभ्यासियोंके लिए ही अतिचारोंकी संभावना है, किन्तु तीसरी-चौथी आदि प्रतिमाधारियोंके लिए किसी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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