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________________ ( १०२ ) यथाजातरूप धारण करके भी जघन्य दो घड़ी, मध्यम चार घड़ी और उत्कृष्ट छह घड़ीका काल तीसरी प्रतिमामें बताया गया है। कुछ आचार्योंने तो मुनियोंके समान ३२ दोषोंसे रहित सामायिक करनेका विधान तीसरी प्रतिमाधारीके लिए किया है । सामायिक शिक्षाव्रतमें जहाँ स्वामी समन्तभद्रने अशरण, अनित्य, अशुचि आदि भावनाओंको भाते हुए संसारको दुःखरूप चिन्तन करने, तथा मोक्षको शरण, नित्य और पवित्र आत्मस्वरूपसे चिन्तन करनेका निरूपण किया है, वहाँ सामायिक प्रतिमामें उक्त चिन्तनके साथ आगेपीछे किये जानेवाले कुछ भी विशेष कर्तव्योंका विधान किया है। वहाँ बताया है कि चार बार तीन-तीन आवर्त और चार नमस्कार रूप कृत्ति कर्मको भी त्रियोगकी शुद्धि पूर्वक करे । वर्तमान में सामायिक करनेके पूर्व चारों दिशाओंमें एक-एक कायोत्सर्ग करके तीन-तीन बार मुकुलित हाथोंके घुमानेरूप आवर्त करके नमस्कार करनेकी विधि प्रचलित है । पर इस विधि - का लिखित आगम-आधार उपलब्ध नहीं है । सामायिक प्रतिमाके स्वरूपवाले 'चतुरावर्तत्रितय' इस श्लोककी व्याख्या करते हुए प्रभाचन्द्राचार्यने लिखा है कि एक-एक कायोत्सर्ग करते समय ' णमो अरिहंताणं' इत्यादि सामायिक दण्डक और 'थोस्सामि हं जिणवरे तित्यवरे केवली अणंतजिणे' इत्यादि स्तवदण्डक पढ़े। इन दोनों दंडकोंके आदि और अन्तमें तीन-तीन आवर्तोंके साथ एक-एक नमस्कार करे । इस प्रकार बारह आवर्त और चार नमस्कारोंका विधान किया है। सामायिकuse और स्तवदण्डक मुद्रित क्रिया कलापसे जानना चाहिए । आवर्तके द्रव्य और भावरूपसे दो प्रकारका निरूपण है । दोनों हाथोंको मुकुलित कर अंजुली बाँधकर प्रदक्षिणा रूपसे घुमानेको द्रव्य आवर्त कहा गया है । २ मन, वचन और कायके परावर्तनको भाव आवर्त कहा गया है । जैसे – सामायिक दण्डक बोलनेके पूर्व क्रिया विज्ञापनरूप मनो-विकल्प होता है, उसे छोड़कर सामायिक दण्डकके उच्चारण में मनको लगाना मन - परावर्तन है । इसी सामायिक दण्डक के पूर्व भूमिको स्पर्श करते हुए नमस्कार किया जाता है, उसके पश्चात् खड़े होकर तीन बार हाथोंको घुमाना कायपरावर्तन है । तत्पश्चात् 'चैत्यभक्ति कायोत्सगं करोमि ' इत्यादि उच्चारणको छोड़कर 'णमो अरहंताणं' इत्यादि पाठका उच्चारण करना वचन परावर्तन है । इस प्रकार सामायिक दण्डकसे पूर्व मन, काय और वचनके परावर्तन रूप तीन आवर्त होते हैं । इसी प्रकार सामायिक दण्डकके अन्तमें तीन आवर्त तथा स्तवदण्डक के आदि और अन्तमें तीन-तीन आवर्त होते हैं । उक्त विधिसे एक कायोत्सर्ग में सब मिलकर बारह आवर्त होते हैं । १५. प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत और प्रोषध प्रतिमामें अन्तर प्रोषधोपवास यह शब्द प्रोषध और उपवास इन दो शब्दोंकी सन्धिसे बना है । स्वामी समन्तभद्रने प्रोषध शब्दका अर्थ एक बार भोजन करना अर्थात् एकाशन किया है। एकाशनके १. देखो - श्राव० सं० भा० २ पृ० ३४९ श्लो० ११०-११४ । २. त्रिः सम्पुटीकृती हस्तौ भ्रामयित्वा पठेत्पुनः । साम्यं पठित्वा भ्राययेतौ स्तवेऽप्येतदाचरेत् ।। (क्रियाकलाप पृ० ६) ३. कथिता द्वादशावर्ता वपुर्वचनचेतसाम् । स्तव सामायिकाद्यन्तपरावर्तनलक्षणाः ॥ ( अमित० श्र० १० ३३९ श्लो० ६५ । क्रियाक० पृ० ५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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