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________________ ( ९८ ) त्याग कर देता है और प्रासुक आहारपानको ग्रहण करता है । इस प्रतिमाको उत्कर्षसे सात मास तक पालन करता है ।' ८. आरम्भ त्याग प्रतिमाधारी - सर्व प्रकारके सावद्य आरम्भका स्वयं परिपूर्ण त्यागी होता है, किन्तु प्रेष्य ( सेवक ) वर्गसे आरम्भ करानेका त्यागी नहीं होता । हाँ, वह शक्तिभर उपयुक्त रहकर अल्प ही आरम्भ कार्य सेवकोंसे कराता है । इस प्रतिमाको वह उत्कर्ष आठ मास तक परिपालन करता है । प्रेष्यारम्भ परित्याग प्रतिमाधारी-सेवक जनोंसे भी रंचमात्र सावद्य आरम्भको नहीं कराता है और न स्वयं करता है । किन्तु उद्दिष्ट भोजनका त्यागी नहीं होता है । इस प्रतिमाको उत्कर्षसे नौ मास तक परिपालन करता है । 3 १०. उद्दिष्टाहार त्यागी - अपने निमित्तसे बने हुए आहारपानका सर्वथा त्याग कर देता है और निरन्तर शास्त्र स्वाध्याय एवं आत्मध्यानमें संलग्न रहता है । यह शिरके बालोंको क्षुरासे १. महावरा छट्टा उवासग -डिमा सम्व धम्म- रुई यावि भवइ । जाव से णं एगराइयं उवास पडिमं सम्म अणुपालिता भवइ । से णं असिणाणए, वियडभोई, मउलिकडे, दिया वा राओ वा बंभयारी, सचित्ताहारे से अपरिण्णाए भवइ । से गं एयारूवेण विहारण विहरमाणे- जहणेणं एगाहं वा दुआहं वा तिओहं वा जाव उक्कोसेणं छम्मासं विहरेज्जा से तं छट्ठा उवासग पडिमा । असिणाण वियडभोई मउलियडो रत्तिबंभमाणेण । परिवक्वमंतजावाइसंगओ चेव सा किरिया ।। ९ ।। एवं किरियाजुत्तोऽबंभं वज्जेइ नवर राई पि । कम्मासावहि नियमा एसा उ अबंभपडिमत्ति ॥ १० ॥ जावज्जोवाए वि ह एसाऽबंभस्स वज्जणा होइ । एवं चिय जं चित्तो सावगधम्मो बहुपगारो ॥। ११ ॥ २. महावरा सत्तमा उवास - पडिमा सम्व धम्म- रुई यावि भवति । जाव राओवरायं वा बंभयारी सचित्ताहारे से परिणाए भवति । आरंभ से अपरिणाए भवति । से णं एयारूवेणं विहरमाणे- जहणणेणं एगाहं वा दुहं वा तिआहं वा जाव उक्कोसेणं सत्तमासे विज्जा से तं सत्तमा उवासग पडिमा । एवंविहो उ नवरं सच्चित्तं पि परिवज्जए सव्वं । सत्त य मासे नियमा फासूयभोगेण तप्पडिमा ॥ १२ ॥ जावज्जीवाए वि हु एसा सच्चित्तवज्जणा होइ । एवं चिय जं चित्तो सावगधम्मो बहुपगारो ।। १३ ।। ३. अहावरा अट्ठमा उवासँग पडिमा सव्व - धम्म- रुई यावि भवति । जाव राओवरायं बंभयारी । सचित्ताहारें से परिणाए भवइ । आरम्भे से परिण्णाए भवइ । पेसारंगे अपरिण्णाए भवइ । से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जाव- जहणेणं एगाहं वा दुआहं वा तिमहं वा जाव उक्कोसेणं अट्ठमासे विहरेज्जा । सेत अट्ठमा उवासग-पडिमा । एवं चिय आरम्भं वज्जइ सावज्जमट्ठमासं जा । तप्पडिमा पेसेहि वि अप्पं कारेइ उवत्तो ॥ १४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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