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________________ ( ९७ ) पालन नहीं करता है ।" ४. प्रोषध प्रतिमाधारी - अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी आदि पर्वों में सम्यक् प्रकारसे यतिभावके साधनार्थ परिपूर्ण प्रोषधोपवास करता है । किन्तु एकरात्रिक उपासकप्रतिमाका स परिपालन नहीं करता है । ५. एक रात्रिप्रतिमाधारी - अष्टमी आदि पर्वके दिनोंमें पूर्ण प्रोषधोपवासको धारण करता हुआ भी स्नान नहीं करता, प्रकाश में ( दिनमें ) ही भोजन करता है, अर्थात् रात्रिभोजनका त्यागी होता है, धोतीकी लांग नहीं लगाता, और दिनमें परिपूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है, तथा रात्रि में भी मैथुन सेवनका परिमाण रखता है । इस प्रतिमाको उत्कर्षसे पाँच मास तक पालता है । ' ६. ब्रह्मचयं प्रतिमाधारी— उक्त क्रियाओंको करता हुआ रात्रिमें भी परिपूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करता है अर्थात् स्त्री सेवनका सर्वथा त्याग कर देता है । किन्तु सचित्त भोजनका त्यागी होता है। इस प्रतिमाको उत्कर्षसे छह मास तक पालता है । ७. सचित त्याग प्रतिमाधारी -- यावज्जीवनके लिए सर्व प्रकारके सचित्त आहारपानका १. अहावरा तच्चा उवास पडिमा सव्व धम्म - रुई या वि भवइ । तस्स णं बहूई सीलवय-गुणवय-वेरमण-पोसहवासाइ सम्मं पट्ठवियाइ भवंति से णं सामाइयं देसात्रगासियं सम्मं अणुपालिता भवइ । से णं च उदसि अट्ठमि उद्दिट्ठ- पुण्णमासिणोसु पडिपुण्णं पोसहोववासं नो सम्मं अणुपालिता भवइ । से तं तच्चा उवासग-पडिमा । तह अत्तवीरिउल्लासजोगओ रयतसुद्धिदित्तिसमं । सामाइयकरणमसइ सम्म सामाइयप्पडिमा ॥ ६ ॥ २. अहावरा च उत्या उवानग - पडिमा - सत्र - धम्म हई यावि भवई । तस्स णं बहूई सीलवय-गुणवय-वेरमणपञ्चवाण-योन होववासाई सम्मं पट्ठवियाई भवंति से णं सामाइयं देसावगासियं सम्मं अणुपालिता भवई । से णं चउद्दसमुद्दिट्ठ- पुण्गमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालित्ता भवइ । से णं एग-राइयं उवासंग पडिमं नो सम्मं अणुपालिता भवइ । से तं चउत्था उवासग-पडमा । पोसहकिरियाकरणं पव्वेसु तहा तहा सुपरिसुद्धं । जइभावभावसाहगमणघं तह पोसह पडिमा ॥ ७ ॥ ३. अहावरा पंचमा उत्रासग-पडिमा सव्व-धम्म- रुई यावि भवइ । तस्स णं बहुई सीलवय-गुणवय- वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाइ सम्मं अणुप लित्ता भवइ । से णं मामाइयं देसावगासियं अहासुतं अहाकप्पं अहातच्चं अहामग्गं सम्मं कारणं फासित्ता पालित्ता, सोहित्ता, पूरिता, किट्टित्ता, आणाए अणुपालित्ता भवइ । से णं चउसि अट्ठमि उद्दिट्ठ- पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं अणुपालित्ता भवइ । से णं एगराइयं उवासंग पडिमं सम्मं अणुपालित्ता भवइ । से णं असिणाणए, वियडभोई, मउलिकडे, दिया बंभचारी, रति परिमाणकडे । से ण एयारूवेण विहारेण विहरमाणे जहण्णेण एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा जाव उनकोसेण पंच मासं विहरइ । से तं पंचमा उवासग- पडिमा । पत्रेसु चेव राई असिणाणाइकिरिया समाजुत्तो । मासपणगावहि तहा पडिमाकरणं तु तप्पडिमा ॥ ८ ॥ १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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