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________________ १३. श्वे० शास्त्रोंके अनुसार प्रतिमाओंका वर्णन श्वेताम्बर-सम्प्रदायके दशाश्रुत स्कन्धगत छट्ठी दशामें श्रावककी ११ प्रतिमाओंका वर्णन है। तथा हरिभद्रसूरिकृत विंशतिकाकी दशवीं विशिकामें भी ११ प्रतिमाओंका वर्णन है। उनके नामोंमें दिगम्बर-परम्परासे जो कुछ भेद है, तथा स्वरूपमें भी जो विभिन्नता है, वह यहां दी जाती है प्रतिमाओंके नामोंमें खास अन्तर सचित्तत्याग प्रतिमाका है । श्वे. मान्यताके अनुसार इसे सातवीं प्रतिमा मानी हे । नवमी प्रतिमाका नाम प्रेष्यप्रयोग त्याग है, दशवींका नाम उद्दिष्ट त्याग और ग्यारहवींका नाम श्रमणभूत प्रतिमा है।' प्रतिमाओंके स्वरूपमें भी कुछ विशेषता है वह उक्त दोनों ग्रन्थोंके आधारपर यहाँ दी जाती है १. दर्शनप्रतिमाघारी-देव-गुरुकी शुश्रूषा करता है, धर्मसे अनुराग रखता है, यथा-समाधि, गुरुजनोंकी वैयावृत्य करता तथा श्रावक और मुनिधर्मपर दृढ़ श्रद्धा रखता है। २. व्रत प्रतिमाघारी-अतिचार रहित पंच अणुव्रतोंका पालन करता है, बहुतसे शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान और प्रोषधोपवासका अभ्यास करता है, किन्तु सामायिक और देशावकाशिक शिक्षाव्रतका सम्यक् प्रकार पालन करता है। ३. सामायिक प्रतिमाघारी-अपने बल-वीर्यके उल्लाससे पूर्व प्रतिमाओंके कर्तव्योंका पालन करता हुआ अनेक बार सामायिक करता है और देशावकाशिक व्रतका भी भलीभाँति पालन करता है किन्तु अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वोमें विधिपूर्वक परिपूर्ण प्रोषधोववासका सम्यक् परि. १. दंशण वय सामाइय पोसह पडिमा अबंभ सच्चित्ते । आरंभ पेस उद्दिट्ठवज्जए समणभूए य ॥ १ ॥ एया खलु इक्कारस गुणठाणगभेयओ मुणेयन्वा । समणोवासगपडिमा बज्झाणुट्ठाणलिंगेहिं ।। २ ।। २. पढमा उवासग-पडिमा-सम्व-धम्म-रुई यावि भवति । तस्स णं बहूई सीलवय-गुणवय-वेरमण-पच्चक्खाण पोसहोववासाइं नो सम्मं पठवित्ताइ भवंति । से तं पढमा उवासग-पडिमा । सुस्सूसाई जम्हा दंसणपमुहाण कज्जसूय त्ति । कायकिरियाइ सम्म लक्खिज्जइ ओहो पडिमा ॥ ३ ॥ सुस्सूस धम्मराओ गुरुदेवाणं जहासमाहीए । वेयावच्चे नियमो दंसणपडिमा भवे एसा ।। ३. अहावरा दोच्चा उवासग-पडिमा-सव्व-धम्म-रुई यावि भवइ । तस्स गं बहई सीलवय-गणवय-वेरमण पच्चक्खाण-पोसहोववासाइ सम्मं पट्ठवित्ताइ भवंति । से णं सामाइयं देसावगासियं नो सम्म अणुपालित्ता भवइ । तं दोच्चा उवासग-पडिमा । पंचाणुस्वयधारित्तमणइयारं वएसु पडिबंधो । वयणा तदणइयारा वयपडिमा सुप्पसिद्ध त्ति ॥ ५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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