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________________ ( ९९ ) मुंडन कराता है, किन्तु शिखा (चोटी) रखता है । वह जानी हुई बातको कहता है, नहीं जानी हुई बात किसीके द्वारा पूछनेपर भी नहीं कहता है। इस प्रतिमाको उत्कर्षसे दश मास तक पालता है ।' ११. श्रमणभूत प्रतिमाधारी - उद्दिष्ट भोजनका त्यागी होती है, दाढ़ी, सिर, मूंछ के बालोंको क्षुरासे वाता है, अथवा अपने हाथसे केश- लुंच करता है । सचेल साधु जैसा वेप धारण करता है और साधुजनोचित उपकरण - पात्र रखता है । चार हाथ भूमिको शोध कर चलता है । केवल जातिवर्ण ( कुटुम्ब जनों ) से प्रेम - विच्छिन्न नहीं होनेके कारण उनके यहाँ गोचरी कर सकता है । गृहस्थ के घर गोचरीके लिए प्रवेश करनेपर यह कहता है- प्रतिमाधारी श्रमणभूत श्रमणोपासकके, भिक्षा दो' इस प्रतिमाको वह ग्यारह मास तक पालन करता है । दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार ग्यारहवीं प्रतिमाको ११ मास पालन करनेके बाद वह साधुपदको यावज्जीवन के लिए स्वीकार कर लेता है । किन्तु हरिभद्र सूरिकी उपासक-विंशिका के अनुसार कोई संक्लेशके बढ़ने से मुनि न बनकर गृहस्थ भी हो जाता है । 3 १. अहावरा नवमा उवास पडिमा सम्वन्धम्म रुई यावि भवइ । जाव-राआंवरायं बंभयारी सचित्ताहारे से परिष्णा भवई | आरंभ से परिणाए भवइ । पेसारंभ से परिणाए भवइ । उद्दिट्ठ-भत्ते से अपरिण्णाए Has | से गं एयारुवेणं विहारेणं विहरमाणे- जहणेणं एगाहं वा दुआहं वा तिमहं वा जाव उक्कोसेण नव मासे विहरेज्जा से तं नवमा उवासग-पडिमा । तेहि पिन कारेई नवमासे जाव पेसपडिम त्ति । पुव्वोइया उ किरिया सब्वा एयस्स सविसेसा ।। १५ ।। अहावरा दममा उवासंग पडिमा सन्व धम्म-रुई यावि भवइ । जाव - उद्दिट्ठ-भत्ते से परिण्णाए भवई । से खुरमुंड वा सिहा वारए वा तस्स णं आभट्ठस्स समाभट्ठस्स वा कष्पति दुवे भासाओ भासित्तए, जहां-जाणं वा जाणं, अजाणं वा णो जाणं । से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहणणं एगाहं वा दुआहं वाति वा जाव उक्कोसेण दस मासे विहरेज्जा । तं दसमा उवास पडिमा । उद्दिट्ठाहाराईण वज्जणं इत्थ होइ तप्पडिमा । दसमासावहि मज्झायझाणजोगप्प हाणस्य ।। १६ ।। ३. अहावरा एकादममा उवामग-पडिमा सव्वधम्म-रुई यावि भवइ । जाव- उद्दिट्ठ-भत्ते से परिणाए भवइ । से णं खुरमुंडए, वालुं चसिरए वा गहियायार-भंडग नेवत्थे । जारिसे समणाणं निग्गंथाणं धम्मे पण्णत्ते, तं सम्म काणं फासेमाणे, पालेमाणे, पुरओ जुगमायाए पेहमाणे, दट्ठूण तसे पाणे उद्द्दद्दट्टु पाए रोएज्जा साहटु पाए रीएज्जा, तिरिच्छं वा पायं कट्टु रोएज्जा सति परक्कमे संजयामेव परिक्कमेज्जा, नो उज्जयं गच्छेज्जा । केवलं से नायए पेज्जबंधणे अवोच्छिन्ने भवइ । एवं से कप्पति नाय - विहि एत्तए । इक्कार मासे जाव समणभूयपडिमा उ चरिमति । अणुचरs साहुकिरियं इत्थ इमो अविगलं पायं ॥ १७ ॥ आसेविण एवं कोई पव्वयइ तह गिही होइ । तभावभेयम च्चिय विसुद्धिसं केस भेएणं ॥ १८ ॥ एया उ जहत्तरमो असंखकम्मक्खनोवसमभावा । हुति पडिमा पसत्या विसोहिकरणाणि जीवस्य ॥ १९ ॥ २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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