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व्रतोंको और उचित लिंगको धारण करते हैं तथा संन्याससे मरण होने तक एक धोतीमात्रके धारी होते हैं । वह वर्णन इस प्रकार है:
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अदीक्षा कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः । एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारो नाभिसम्मतः ॥ १७० ॥ तेषां स्यादुचितं लिंगं स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ॥ १७१ ॥
( श्रावका० भा० १ पृ० ९३ )
आचार्य जिनसेनने दीक्षार्ह कुलीन श्रावककी 'दीक्षाद्य क्रिया' से अदीक्षार्ह, अकुलीन श्रावककी दद्याद्य क्रियामें क्या भेद रखा है, यह यहाँ जानना आवश्यक है। वे दोनोंको एक वस्त्रका धारण करना समानरूपसे प्रतिपादन करते हैं, इतनी समानता होते हुए भी वे उसके लिए उपनीति संस्कार अर्थात् यज्ञोपवीतके धारण आदिका निषेध करते हैं, और साथ ही स्व-योग्य व्रतोंके धारणका विधान करते हैं । यहाँ ही दीक्षाद्यक्रियाके धारकोंके दो भेदोंका सूत्रपात प्रारंभ होता हुआ प्रतीत होता है, और संभवतः ये दो भेद ही आगे जाकर ग्यारहवीं प्रतिमाके दो भेदोंके आधार बन गये हैं । 'स्वयोग्य - व्रतधारण' से आचार्य जिनसेनका क्या अभिप्राय रहा है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है । पर इसका स्पष्टीकरण प्रायश्चित्तचूलिकाके उस वर्णनसे बहुत कुछ हो जाता है, जहाँ पर कि प्रायश्चित्तचूलिकाकारने कारु - शूद्रोंके दो भेद करके उन्हें व्रत-दान आदिका विधान किया है । प्रायश्चित्तचूलिकाकार लिखते हैं :
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कारुणो द्विविधाः सिद्धा भोज्याभोज्यप्रभेदतः ।
भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा क्षुल्लक व्रतम् ।। १५४ ।।
अर्थात् - — कारु शूद्र भोज्य और अभोज्यके भेदसे दो प्रकारके प्रसिद्ध हैं, उनमेंसे भोज्य शूद्रोंको ही सदा क्षुल्लक व्रत देना चाहिए ।
इस ग्रन्थके संस्कृत टीकाकार भोज्य पदकी व्याख्या करते हुए कहते हैं:
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भोज्याः - यदन्नपानं ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रा भुञ्जते । अभोज्याः तद्विपरीतलक्षणाः । भोज्येष्वेव प्रदातव्या क्षुल्लकदीक्षा, नापरेषु ।
अर्थात् — जिनके हाथका अन्न-पान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र खाते हैं, उन्हें भोज्य कारु कहते हैं । इनसे विपरीत अभोज्यकारु जानना चाहिए। क्षुल्लक व्रतकी दीक्षा भोज्य कारुओं में ही देना चाहिए, अभोज्य कारुओंमें नहीं ।
इससे आगे क्षुल्लकके व्रतोंका स्पष्टीकरण प्रायश्चित्तचूलिकामें इस प्रकार किया
गया है ।
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क्षुल्लकेष्वेककं वस्त्रं नान्यत्र स्थितिभोजनम् । आतापनादियोगोऽपि तेषां शश्वन्निषिध्यते ।। १५५ ।। क्षीरं कुर्याच्च लोचं वा पाणौ भुंक्तेऽथ भाजने । कौपीनमात्रतंत्रोऽसौ क्षुल्लकः परिकीर्तितः ॥ १५६ ॥
अर्थात् - क्षुल्लकोंमें एक ही वस्त्रका विधान किया गया है, वे दूसरा वस्त्र नहीं रख सकते । वे मुनियोंके समान खड़े-खड़े भोजन नहीं कर सकते। उनके लिए आतापन योग, वृक्षमूल
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