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________________ ( ८९ ) अर्थात् मुनिके पश्चात् दूसरा उत्कृष्टलिंग गृहत्यागी उत्कृष्ट श्रावकका है । वह पात्र लेकर ईर्यासमिति पूर्वक मौन के साथ भिक्षाके लिए परिभ्रमण करता है। इस गाथामें पारहवीं प्रतिमाधारी 'उत्कृष्ट श्रावक' ही कहा गया है, अन्य किसी नामकी उससे उपलब्धि नहीं होती। हां, 'भिक्खं भमेइ पत्तो' पदसे उसके 'भिक्षुक' नामकी ध्वनि अवश्य निकलती है। (२) स्वामी कात्तिकेय और समन्तभद्रने भी ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके दो भेद नहीं किये हैं, न उनके लिए किसी नामकी ही स्पष्ट संज्ञा दी है। हाँ, उनके पदोंसे भिक्षुक नामकी पुष्टि अवश्य होती है। इनके मतानुसार भी उसे गृहका त्याग करना आवश्यक है। (३) आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराणमें यद्यपि कहीं भी ग्यारह प्रतिमाओंका कोई वर्णन नहीं किया है, परन्तु उन्होंने ३८ ३ पर्वमें गर्भान्वय क्रियाओंमें मुनि बननेके पूर्व 'दीक्षाद्य' नामकी क्रियाका जो वर्णन किया है, वह अवश्य ग्यारहवीं प्रतिमाके वर्णनसे मिलता-जुलता है। वे लिखते हैं : त्यक्तागारस्य सदृष्टः प्रशान्तस्य गृहीशिनः । प्राग्दीक्षोपयिकाकालादेकशाटकधारिणः ॥ १५७ ॥ यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रतिधार्यते । दीक्षाद्यं नाम तज्ज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः ।। १५८ ॥ (श्रावका० भा० १ पृ० ४२) अर्थात्-जिनदीक्षा धारण करनेके कालसे पूर्व जिस सम्यग्दृष्टि, प्रशान्तचित्त, गृहत्यागी, द्विजन्मा और एक धोती मात्रके धारण करनेवाले गृहीशीके मुनिके पुरश्चरणरूप जो दीक्षा ग्रहण की जाती है, उस क्रिया-समूहके करनेको 'दीक्षाद्य' क्रिया जानना चहिए। इसी क्रियाका स्पष्टीकरण आ० जिनसेनने ३९ वें पर्वमें भी किया है : त्यक्तागारस्य तस्यातस्तपोवनमुपेयुषः । एकशाटकधारित्वं प्राग्वद्दीक्षाद्यमिष्यते ॥ ७७॥ ( श्रावका० भा० १ पृ० ६३) इसमें 'तपोवनमुपेयुषः' यह एक पद और अधिक दिया है। इसमें 'दीक्षाद्यक्रिया' से दो बातोंपर प्रकाश पड़ता है, एक तो इस बातपर कि उसे इस क्रियाको करनेके लिए घरका त्याग आवश्यक है, और दूसरी इस बातपर कि उसे एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए । आचार्य समन्तभद्रके 'गहतो मुनिवनमित्वा' पदके अर्थकी पुष्टि 'त्यक्तागारस्य' और 'तपोवनमुपेयुषः' पदसे और 'चेलखण्डधरः' पदके अर्थकी पुष्टि “एकशाटकधारिणः' पदसे होती है, अतः इस दीक्षाद्यक्रियाको ग्यारहवीं प्रतिमाके वर्णनसे मिलता-जुलता कहा गया है। __ आचार्य जिनसेनने इस दीद्याद्यक्रियाका विधान दीक्षान्वय-क्रियाओंमें भी किया है और वहाँ बतलाया है कि जो मनुष्य अदीक्षाह अर्थात् मुनिदीक्षाके अयोग्य कुलमें उत्पन्न हुए हैं, विद्या और शिल्पसे आजीविका करते हैं, उनके उपनीति आदि संस्कार नहीं किये जाते । वे अपने पदके योग्य १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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