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(८८ ) और 'उत्कृष्ट' या 'उत्तम' नामकी पुष्टि अवश्य होती है, क्योंकि 'उत्तम और उत्कृष्ट' पद तो एकार्थक ही हैं। आदिके छह प्रतिमाधारी श्रावक यतः स्त्री-सुख भोगते हुए घरमें रहते हैं, अतः उन्हें 'गृहस्थ' संज्ञा स्वतः प्राप्त है। यद्यपि समन्तभद्रके मतसे श्रावक दसवीं प्रतिमा तक अपने घरमें ही रहता है. पर यहाँ 'गृहिणी गृहमाहुन कुड्यकटसंहतिम्' की नीतिके अनुसार स्त्रीको ही गृह संज्ञा प्राप्त है और उसके साथ रहते हुए ही वह गृहस्थ संज्ञाका पात्र है। यतः प्रतिमाधारियोंमें प्रारम्भिक छह प्रतिमाधारक स्त्री-भोगी होनेके कारण गृहस्थ हैं, अतः वे सबसे छोटे भी हुए, इसलिए उन्हें जघन्य श्रावक कहा गया है। पारिशेष-न्यायसे मध्यवर्ती तीन प्रतिमाधारी मध्यम श्रावक सिद्ध होते हैं। पर दसवीं प्रतिमाधारीको मध्यम न मानकर उत्तम श्रावक माना गया है, इसका कारण यह है कि वह घरमें रहते हुए भी नहीं रहने जैसा है, क्योंकि वह गृहस्थीके किसी भी कार्य में अनुमति तक भी नहीं देता है। पर दसवीं प्रतिमाधारीको भिक्षावृत्तिसे भोजन न करते हुए भी 'भिक्षुक' कैसे माना जाय, यह एक प्रश्न विचारणीय अवश्य रह जाता है। संभव है, भिक्षुकके समीप होनेसे उसे भी भिक्षुक कहा गया हो, जैसे चरम भवके समीपवर्ती अनुत्तर विमानवासी देवोंको 'द्विचरम' कह दिया जाता है। सातवींसे लेकर आगेके सभी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी हैं, जब उनमेंसे अन्तिम दो को भिक्षुक संज्ञा दे दी गई, तब मध्यवर्ती तीन (सातवीं, आठवीं और नवमी) प्रतिमाधारियोंकी ब्रह्मचारी संज्ञा भी स्वतः सिद्ध है। पर ब्रह्मचारीको वर्णी क्यों कहा जाने लगा, यह एक प्रश्न यहाँ आकर उपस्थित होता है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, सोमदेव और जिनसेनने तथा इनके पूर्ववर्ती किसी भी आचार्यने 'वर्णी' नामका विधान जैन परम्परामें नहीं किया है। परन्तु उक्त तीन प्रतिमा-धारियोंको पं० आशाधरजीने ही सर्वप्रथम 'वर्णिनस्त्रया मध्याः' कहकर वर्णी पदसे निर्देश किया है और उक्त श्लोककी स्वोपज्ञटीकामें वणिनो ब्रह्मचारिणः' लिखा है, जिससे यही अर्थ निकलता है कि वर्णीपद ब्रह्मचारीका वाचक है, पर 'वर्णी' पदका क्या अर्थ है, इस बातपर उन्होंने कुछ प्रकाश नहीं डाला है। सोमदेवने ब्रह्म शब्दके कामविनिग्रह, दया और ज्ञान ऐसे तीन अर्थ किये हैं, (देखो भा० २ १० २२५ श्लोक ८४०) मेरे ख्यालसे स्त्रीसेवनत्यागकी अपेक्षा सातवी प्रतिमाधारीको, दयार्द्र होकर पापारंभ छोड़नेकी अपेक्षा आठवीं प्रतिमाधारीको और निरन्तर स्वाध्यायमें प्रवृत्त होनेकी अपेक्षा नवी प्रतिमाधारीको ब्रह्मचारी कहा गया होगा।
११. क्षुल्लक और ऐलक ऊपर प्रतिमाओंके वर्गीकरणमें बताया गया है कि स्वामी कात्तिकेय और समन्तभद्रने यद्यपि सीधे रूपमें ग्यारहवीं प्रतिमाधारीका 'भिक्षुक' नाम नहीं दिया है, तथापि उनके उक्त पदोंसे इस नामकी पुष्टि अवश्य होती है। परन्तु ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके दो भेद कबसे हुए और उन्हें 'क्षुल्लक' और 'ऐलक' कबसे कहा जाने लगा, इन प्रश्नोंका ऐतिहासिक उत्तर अन्वेषणीय है, अतएव यहाँ उनपर विचार किया जाता है :(१) आचार्य कुन्दकुन्दने सूत्रपाहुडमें एक गाथा दी है :
दुइयं च वुत्तलिंग उक्किलै अवर सावयाणं च। भिक्खं भमेइ पत्तो समिदीभासेण मोणेण ॥ २१ ॥
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