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( ८७ ) को छोड़ता है और उस समय जाति-बिरादरीके मुखिया जनोंके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र या उसके अभावमें गोत्रके किसी उत्तराधिकारी व्यक्तिको बुलाकर कहता है कि हे तात, हे वत्स, आज तक मैंने इस गृहस्थाश्रमका भलीभाँति पालन किया । अब मैं इस संसार, देह और भोगोंसे उदास होकर इसे छोड़ना चाहता हूँ, अतएव तुम हमारे इस पदको धारण करनेके योग्य हो । पुत्रका पुत्रपना यही है कि जो अपने आत्महित करनेके इच्छुक पिताके कल्याण मार्ग में सहायक हो, जैसे कि केशव अपने पिता सुविधिके हुए । ( इसकी कथा आदिपुराणसे जाननी चाहिए ।) जो पुत्र पिताके कल्याण-मार्ग में सहायक नहीं बनता, वह पुत्र नहीं, शत्रु है । अतएव तुम मेरे इस सब धनको, पोष्यवर्ग को और धर्म्य कार्योको संभालो । यह सकलदत्ति है जो कि शिवार्थी जनोंके लिए परम पथ्य मानी गई है । जिन्होंने मोहरूप शार्दूलको विदीर्ण कर दिया है, उसके पुनरुत्थानसे शंकित गृहस्थोंको त्यागका यही क्रम बताया गया है, क्योंकि शक्त्यनुसार त्याग ही सिद्धिकारक होता है । इस प्रकार सर्वस्वका त्याग करके मोहको दूर करनेके लिए उदासीनताकी भावना करता हुआ वह श्रावक कुछ काल तक घर में रहे । (देखो श्रावका० भा० २ पृ० ७२-७३)
उक्त प्रकारसे जब श्रावकने नवमी प्रतिमामें आकर 'स्व' कहे जानेवाले अपने सर्वस्वका त्याग कर दिया, तब वह बड़ेसे बड़ा दानी या अतिथि संविभागी सिद्ध हुआ । क्योंकि सभी दानोंमें सकलदत्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है । सकलदत्ति करनेपर वह श्रावक स्वयं अतिथि बननेके लिए अग्रेसर होता है और एक कदम आगे बढ़कर गृहस्थाश्रमके कार्यों में भी अनुमति देनेका परित्याग कर देता है । तत्पश्चात् एक सीढ़ी और आगे बढ़कर स्वयं अतिथि बन जाता है और घर-द्वारको छोड़कर मुनि-वनमें रहकर मुनि बनने की ही शोध में रहने लगता है। इस प्रकार दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाका आधार विधि-निषेधके रूपमें अतिथि संविभाग व्रत सिद्ध होता है ।
१०. प्रतिमाओंका वर्गीकरण
श्रावक किस प्रकार अपने व्रतोंका उत्तरोत्तर विकास करता है, यह बात 'प्रतिमाओंका आधार' शीर्षकमें बतलाई जा चुकी है। आचार्योंने इन ग्यारह प्रतिमा-धारियोंको तीन भागों में विभक्त किया है - गृहस्थ, वर्णी या ब्रह्मचारी और भिक्षुक' । आदिके छह प्रतिमाधारियोंको गृहस्थ, सातवीं, आठवीं और नवमी प्रतिमाधारीको वर्णी और अन्तिम दो प्रतिमाधारियोंको भिक्षुक संज्ञा दी गई है। कुछ आचार्योंने इनके क्रमशः जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावक ऐसे नाम भी दिये हैं, जो कि उक्त अर्थके ही पोषक हैं ।
यद्यपि स्वामिकात्तिकेयने इन तीनोंमेंसे किसी भी नामको नहीं कहा है, तथापि ग्यारहवीं प्रतिमाके स्वरूपमें उन्होंने जो 'भिक्खायरणेण' पद दिया है, उससे 'भिक्षुक' इस नामका समर्थन अवश्य होता है । आचार्य समन्तभद्रने भी उक्त नामोंका कोई उल्लेख नहीं किया है, तथापि ग्यारहवीं प्रतिमाके स्वरूपमें जो 'भैक्ष्याशनः' और 'उत्कृष्टः' ये दो पद दिये हैं, उनसे 'भिक्षुक'
१. देखो -- श्रावकाचार भाग १ ० २२३ श्लोक ८२४ ।
२. श्रावकाचार भाग २ पृ० २२ श्लोक २-३ ।
३. श्रावकाचार भाग १ ० २५७ श्लोक २० ।
४, श्रावकाचार भाग १ ५० २८, बाया ९० ।
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