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________________ ( ८६ ) दशवीं अनुमतित्याग प्रतिमा है । इसमें आकर श्रावक व्यापारादि आरम्भके विषयमें, धनधान्यादि परिग्रहके विषयमें और इहलोक-सम्बन्धी विवाह आदि किसी भी लौकिक कार्य में अनुमति नहीं देता है । वह घरमें रहते हुए भो घरके इष्ट-अनिष्ट कार्योंमें राग-द्वेष नहीं करता है और जल कमल के समान सर्व गृह कार्योंसे अलिप्त रहता है । केवल वस्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता । अतिथि या मेहमानके समान उदासीन रूपसे घरमें रहता है । घर वालोंके द्वारा भोजनके लिए बुलानेपर भोजन करने चला जाता है । इस प्रतिमाका धारी भोग सामग्री में से केवल भोजनको, भले ही वह उसके निमित्त बनाया गया हो, स्वयं अनुमोदना न करके ग्रहण करता है और परिमित वस्त्र धारण करने तथा उदासीन रूपसे एक कमरेमें रहनेके अतिरिक्त और सर्व उपभोग सामग्रीका भी परित्यागी हो जाता है। इस प्रकार वह घरमें रहते हुए भी भोगविरति और उपभोगविरति की चरम सीमापर पहुँच जाता है । यहाँ इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि दशवीं प्रतिमाका धारी उद्दिष्ट अर्थात् अपने निमित्त बने हुए भोजन और वस्त्रके अतिरिक्त समस्त भोग और उपभोग सामग्रीका सर्वथा परित्यागी हो जाता है । जब श्रावकको घरमें रहना भी निर्विकल्पता और निराकुलताका बाधक प्रतीत होता है, तब वह पूर्ण निर्विकल्प निजानन्दकी प्राप्तिके लिए घरका भी परित्याग कर वनमें जाता है और निर्ग्रन्थ गुरुओंके पास व्रतोंको ग्रहण कर भिक्षावृत्तिसे आहार करता हुआ तथा रात-दिन स्वाध्याय और तपस्या करता हुआ जीवन यापन करने लगता है । वह इस अवस्थामें अपने निमित्त बने हुए आहार और वस्त्र आदिको भी ग्रहण नहीं करता है । अतः उद्दिष्ट भोगविरति और उद्दिष्ट उपभोगविरतिकी चरम सीमापर पहुँच जानेके कारण उद्दिष्ट-त्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक कहलाने लगता है। इसके पश्चात् वह मुनि बन जाता है, या समाधिमरणको अंगीकार करता है । उक्त प्रकार तीसरीसे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक सर्व प्रतिमाओंके आधार चार शिक्षाव्रत है, यह बात असंदिग्ध रूपसे शास्त्राधार पर प्रमाणित हो जाती है । इस प्रकार शिक्षाव्रतों का उद्देश जो मुनि बननेकी शिक्षा प्राप्त करना है, अथवा समाधिमरणकी ओर अग्रेसर होना ही वह सिद्ध हो जाता है । यदि तत्त्वार्थसूत्र सम्मत शिक्षाव्रतोंको भी प्रतिमाओंका आधार माना जावे, तो भी कोई आपत्ति नहीं है । पाँचवीं प्रतिमासे लेकर उपर्युक्त प्रकारसे भोग और उपभोगका क्रमशः परित्याग करते हुए जब श्रावक नवीं प्रतिमामें पहुँचता है, तब वह अतिथि संविभागके उत्कृष्टरूप सकलदत्तको स्वीकार करता है, जिसका विशद विवेचन पं० आशाधरजीने सागारधर्मामृतके सातवें अध्यायमें इस प्रकार किया है जब क्रमशः ऊपर चढ़ते हुए श्रावकके हृदयमें यह भावना प्रवाहित होने लगे कि ये स्त्री, पुत्र, कुटुम्बी जन वा धनादिक न मेरे हैं और न में इनका हूँ। हम सब तो नदी - नाव संयोगसे इस भव एकत्रित हो गये हैं और इसे छोड़ते ही सब अपने-अपने मार्ग पर चल देंगे, तब वह परिग्रह ९. उद्दिष्टविरतः-स्वनिमित्तनिर्मिताहारग्रहणरहितः स्वोद्दिष्टपिडोपधिशयनवसनादेविरत उद्दिष्टविनिवृत्तः । -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० ३०६ टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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