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________________ योग आदि योगोंका भी शाश्वत निषेध किया गया है। उस्तरे आदिसे क्षौरकर्म शिरमुंडन भी करा सकते हैं और चाहें तो केशोंका लोंच भी कर सकते हैं। वे पाणिपात्रमें भी भोजन कर सकते हैं और चाहें तो काँसेके पात्र आदिमें भी भोजन कर सकते हैं। ऐसा व्यक्ति जो कि कौपीनमात्र रखनेका अधिकारी है, क्षुल्लक कहा गया है। टीकाकारोंने कौपीनमात्रतंत्रका अर्थ-कर्पटखंडमंडितकटीतट: अर्थात् खंड वस्त्रसे जिसका कटीतट मंडित हो, किया है, और क्षुल्लकका अर्थ-उत्कृष्ट अणुव्रतधारी किया है। ___ आदिपुराणकारके द्वारा अदीक्षार्ह पुरुषके लिए किये गये व्रतविधानकी तुलना जब हम प्रायश्चित्तचूलिकाके उपर्युक्त वर्णनके साथ करते हैं, तब असंदिग्ध रूपसे इस निष्कर्षपर पहुंचते हैं कि जिनसेनने जिन अदीक्षार्ह पुरुषोंको संन्यासमरणावधि तक एक वस्त्र और उचित व्रत-चिह्न आदि धारण करनेका विधान किया है, उन्हें ही प्रायश्चित्तचूलिकाकारने 'क्षुल्लक' नामसे उल्लेख किया है। क्षुल्लक शब्दका अर्थ अमरकोषमें क्षुल्लक शब्दका अर्थ इस प्रकार दिया है : विवर्णः पामरो नीचः प्राकृतश्च पृथक्जनः । निहीनोऽपसदो जाल्पः क्षुल्लकश्चेतरश्च सः ।। १६ ॥ (दश नीचस्य नामानि ) अमर० द्वि० कां० शूद्रवर्ग । अर्थान्-विवर्ण, पामर, नीच, प्राकृत जन, पृथक् जन, निहीन, अपसद, जाल्प, क्षुल्लक और इतर ये दश नीच नाम हैं। उक्त श्लोक शूद्रवर्गमें दिया हुआ है । अमरकोषके तृतीय कांडके नानार्थ वर्गमें भी 'स्वल्पेऽपि क्षुल्लकस्त्रिषु' पद आया है, वहाँपर इसकी टीका इस प्रकार की है : - 'स्वल्पे, अपि शब्दान्नीच-कनिष्ठ-दरिद्रेष्वपि क्षुल्लकः' अर्थात्-स्वल्प, नीच, कनिष्ठ और दरिद्रके अर्थों में क्षुल्लक शब्दका प्रयोग होता है । 'रभसकोष'में भी 'क्षुल्लकस्त्रिषु नीचेऽल्पे' दिया है। इन सबसे यही सिद्ध होता है कि क्षुल्लक शब्दका अर्थ नीच या हीन है । ___ प्रायश्चित्तचूलिकाके उपर्युक्त कथनसे भी इस बातकी पुष्टि होती है कि शूद्रकुलोत्पन्न पुरुषोंको क्षुल्लक दीक्षा दी जाती थी। तत्त्वार्थराजवात्तिक आदिमें भी महाहिमवान्के साथ हिमवान् पर्वतके लिए क्षुल्लक या क्षुद्र शब्दका उपयोग किया गया है, जिससे भी यही अर्थ निकलता है कि हीन या क्षुद्रके लिए क्षुल्लक शब्दका प्रयोग किया जाता था। श्रावकाचारोंके अध्ययनसे पता चलता है कि आचार्य जिनसेनके पूर्व तक शूद्रोंको दीक्षा देने या न देनेका कोई प्रश्न सामने नहीं था। जिनसेनके सामने जब यह प्रश्न आया, तो उन्होंने अदीक्षाह और दीक्षार्ह कुलोत्पन्नोंका विभाग किया और उनके पीछे होनेवाले सभी आचार्योंने उनका अनुसरण किया। प्रायश्चित्तचलिकाकारने नीचकलोत्पन्न होनेके करण ही संभवतः आतापनादि योगका क्षल्लकके लिए निषेध किया था. पर परवर्ती श्रावकाचारकारोंने इस रहस्यको न समझनेके कारण सभी ग्यारहवीं प्रतिमाधारकोंके लिए आपातनादि योगका निषेध कर डाला। इतना ही नहीं, आदि पदके अर्थको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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