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धार्मिक कहा जाने वाला आजका धर्मात्मा केवल मन्दिरमें धर्मात्मा रहता है। उससे बाहर निकलकर उसमें और अधर्मात्मा कहे जानेवालेमें कोई अन्तर नहीं है । आज कोरी भगवद्भक्ति ही धर्मके रूपमें शेष है, अन्याय अभक्ष्य और मिथ्यात्वका त्याग अब आवश्यक नहीं है।
रत्नकरण्डश्रावकाचारके पश्चात् नम्बर आता है पुरुषार्थसिद्धयुपाय का । वह अध्यात्मी अमृतचन्द्राचार्यको कृति है और उसपर उनके अध्यात्मकी छाप सुस्पष्ट है। वह प्रारम्भमें जो चर्चा करते हैं वह श्रावकाचारके लिये उनकी अपूर्व देन है। प्रारम्भके १५ पद्य बहुमूल्य हैं, प्रत्येक श्रावकधर्मके पालकको उन सूत्रोंमें ग्रथित सत्यको सदा हृदयमें रखना चाहिये ।
__ उन्होंने श्रावकाचारको 'पुरुषार्थसिद्धि-उपाय' नाम देकर उसके महत्त्वको सुस्पष्ट कर दिया है।
१. निश्चय और व्यवहारको जानकर जो तात्त्विक रूपसे मध्यस्थ रहता है बही श्रावक देशनाके पूर्णफलको प्राप्त करता है।
२. पुरुष चैतन्यस्वरूप है वह अपने परिणामोंका कर्ता भोक्ता है। उसके परिणामोंको निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं ही कर्मरूपसे परिणमित होते हैं। जीव भी अपने चैतन्यात्मक भावरूप स्वयं ही परिणमन करता है किन्तु पौद्गलिक कर्म उसमें भी निमित्तमात्र होते हैं। इस प्रकार यह जीव कर्मकृत भावोंसे असमाहित होते हुए भी मूर्खजनोंको संयुक्तकी तरह प्रतीत होता है। यह प्रतीति ही संसारका बीज है।
३. अतः विपरीत अभिनिवेशको त्यागकर और निजआत्मतत्त्वका निश्चय करके उससे विचलित न होना ही पुरुषार्थ सिद्धिका उपाय है।
__ उक्त शब्दोंमें समयसारका सार भरा है जो प्रत्येक मुमुक्षुके लिये उपादेय है। श्रावकधर्मके पालनसे पूर्व उसका ज्ञान होना आवश्यक है। किन्तु उत्तरकालीन किसी भी श्रावकाचारमें यह दृष्टि दृष्टिगोचर नहीं होती। धर्मका लक्ष्य जीवको कर्मबन्धनसे मुक्त करना है। किन्तु जो न आत्माको जानते हैं और न कर्मबन्धनको, वे धर्म धारण करके धर्मका परिहास कराते हैं । आदिकी तरह इस ग्रन्थका अन्त भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस तरहका श्रावकाचार यही एक मात्र है। आगेके श्रावकाचार तो लौकिक प्रभावोंसे प्रभावित हैं। उनमें लोकाचारकी बहुलता परिलक्षित होती है अन्तर्दृष्टिका स्थान बहिर्दृष्टिने ले लिया है । इसके लिये उत्तर कालमें आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी और पूज्यपादके नामपर रचे गये श्रावकाचारोंको देखना चाहिये। ये श्रावकाचार लोकाचारसे परिपूर्ण है और पाठकोंको प्रभावित करनेके लिये बड़े आचार्योंके नामसे उन्हें रचा गया है। अविवेकीजन उन्हें बड़े आचार्योंकी कृति मानकर उनपर विश्वास कर बैठते हैं और ठगाये जाते हैं।
श्रावकाचारोंका यह संग्रह, जो पाँच भागोंमें प्रकाशित किया गया है, इस दृष्टिसे बहुत उपयोगी है। एकत्र सब श्रावकाचारोंको पाकर उनका स्वाध्याय करनेसे साधारण स्वाध्यायप्रेमीको भी यह ज्ञात हो सकेगा कि उत्तरोत्तर श्रावकाचारोंमें किस प्रकारका परिवर्तन होता गया है। और निवृत्तिको प्रधान माननेवाला जैनधर्म हिन्दूधर्मकी तरह एकदम प्रवृत्ति प्रधान बनता गया है। उसीका यह फल है कि आजके आचार्य, मुनि और आर्यिकाजन भी प्रवृत्तिप्रधान ही देखे जाते, हैं । वे स्वयं पूजापाठोंमें उलझे रहते हैं और श्रावकोंको भी उन्हींमें उलझाये रखते हैं। यहाँतक
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