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________________ (८) देखा जाता है कि वीतराग जिनेन्द्रदेवके उपासक सरागी देवोंके उपासक बन जाते हैं। श्रावकाचारोंके सम्पादक पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने श्रावकाचारोंके संकलन और सम्पादनमें जो श्रम किया है उसका मूल्यांकन विज्ञ ही कर सकते हैं। उसकी प्रस्तावना तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है उसमें उन्होंने ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंके साथ श्रावकाचारकी प्रक्रिया पर भी विस्तारसे विचार किया है। यह केवल श्रावकाचार नामके ग्रन्थोंका ही संकलन नहीं है किन्तु इसमें अन्य ग्रन्थोंमें चचित श्रावकाचार भी संकलित हैं पं० हीरालालजीने रत्नमालाको समन्तभद्राचार्यके शिष्य शिवकोटीकी मानकर प्राचीन बतलाया है किन्तु यह प्राचीन नहीं है यह उसके आन्तरिक अवलोकनसे स्पष्ट हो जाता है। इन श्रावकाचारोंके तुलनात्मक अध्ययनसे आचार सम्बन्धी अनेक बातें प्रकाशमें आती हैं। आचार्य सोमदेवके उपासकाध्ययनमें लोकाचारका प्रभाव परिलक्षित होता है उसीमें सर्वप्रथम पूजाकी विधि और फलोंके रससे भगवान्का अभिषेक देखने में आता है। उन्होंने स्वयं कहा भी है कि गृहस्थोंके दो धर्म होते हैं लौकिक और पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रित होता है। और पारलौकिक धर्म आगमाश्रित होता है आदि । पं० हीरालालजीने अपनी प्रस्तावनामें इन सबपर अच्छा प्रकाश डाला है। श्रीमान् स्व० ० जीवराज गौतमचन्दजी दोशी अपनी सब सम्पत्ति धर्मार्थ दे गये थे। उसीसे ग्रन्थमाला स्थापित की गई जिससे बराबर जैन ग्रन्थोंका प्रकाशन होता रहता है इस ग्रन्थमालाके अध्यक्ष सेठ लालचन्दजी तथा मंत्री सेठ बालचन्द देवचन्द शाह हैं, जो अतिवृद्ध होनेपर भी उत्साहपूर्वक ग्रन्थमालाका संचालन करते हैं । मैं उक्त महानुभावोंको धन्यवाद देते हुए सम्पादक पं० हीरालालजीका आभार मानता हूँ जिन्होंने रोगपीड़ित होते हुए भी इस वृद्धावस्था में इस महत् कार्यको पूर्ण किया । उनको साहित्यसेवा आजके विद्वानोंके लिये अनुकरणीय है। कैलाशचन्द्र शास्त्री प्रन्थमाला सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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