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प्रधान सम्पादकीय
जैनधर्मं मूलमें निवृत्तिप्रधान है; क्योंकि मोक्षका प्रधानकारण निवृत्ति है। किन्तु गृहस्थाश्रम प्रवृत्तिप्रधान होता है, प्रवृत्ति के बिना गृहस्थाश्रमका निर्वाह असंभव है । प्रवृत्ति अच्छी भी होती है और बुरी भी होती है। अच्छी प्रवृत्तिको शुभ और बुरी प्रवृत्तिको अशुभ कहते हैं । प्रवृत्तिके आधार तीन हैं- मन वचन और काय । इन तीनोंके द्वारा प्रवृत्ति किये जाने पर जो आत्माके प्रदेशों में हलन चलन होता है उसे योग कहते हैं । यह योग ही आत्मामें कर्मपुद्गलोंको लाने में निमित्त बनता है । जबतक इसका विरोध न किया जाये तबतक जीव नवीन कर्मबन्धनसे मुक्त नहीं होता । अतः मुमुक्षु श्रावक सबसे प्रथम अशुभ प्रवृत्तिसे विरत होकर शुभप्रवृत्तिका अभ्यासी बनता है । उसका यह अभ्यास ही श्रावकाचार कहलाता है । उसे ही आगम में व्रत कहा है । तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्यायके प्रारम्भमें कहा है
'हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ।'
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहसे विरतिका नाम व्रत है। वह व्रत दो प्रकारका हैअणुव्रत, महाव्रत । पाँचों पापोंका एक देश त्याग अणुव्रत है उसे जो पालता है वह श्रावक होता है । अतः श्रावकधर्मका मूल पाँच अणुव्रत हैं । इसीके साथ मद्य, मांस और मधुके त्यागको मिलाकर श्रावकके आठ मूलगुण प्रसिद्ध हुए । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथम पाँच अणुव्रत का ही वर्णन है । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत ये श्रावकके बारहव्रत हैं । इनमेंसे प्रथम श्रावकके लिये पाँच अणुव्रतों का पालन आवश्यक है । यही प्राचीन परिपाटी रही है। इनके प्रारम्भमें सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्चे देव शास्त्र गुरुकी श्रद्धा - सप्ततत्त्वकी श्रद्धा होना आवश्यक है । जब वही श्रावक प्रतिमारूप व्रत ग्रहण करता है तो दर्शन प्रतिमा और व्रतप्रतिमा धारण करता है दर्शन प्रतिमामें आठ अंगसहित सम्यग्दर्शन और व्रत प्रतिमामें निरतिचार बारह व्रत पालता है । किन्तु प्रतिमा रूप व्रत धारण करनेसे पूर्व साधारण श्रावक बननेकी स्थिति में पाँच अणुव्रतोंका पालन करता है । यही प्राचीन पद्धति आचार्य कुन्दकुन्दके चारित्र पाहुड तथा आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचारसे ज्ञात होती है । अतिचारोंका वर्णन साधारण श्रावकके लिये नहीं है व्रतप्रतिमाधारीके लिये है । आचार्य कुन्दकुन्दके चारित्रपाहुडमें तो अतीचारोंका वर्णन नहीं है । तत्वार्थसूत्रमें प्रतिमाओं का उल्लेख नहीं है किन्तु रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें दोनोंका कथन है । १५० ( डेढ़ सौ ) श्लोकों में निबद्ध रत्नकरण्ड यथार्थ में रत्नोंका करण्ड है । दिगम्बर परम्पराके श्रावकाचारका वही मूल है । उसे आधार बनाकर उत्तरकालीन श्रावकाचारोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनमें किस प्रकार वृद्धि होती गई और श्रावकाचारोंका कलेवर बढ़ता गया । पाँच अणुव्रतोंका स्थान पाँच उदुम्बर फलोंको दे देनेसे तो श्रावकाचारका एक तरहसे प्राणान्त जैसा हो गया । पाँच अणुव्रतोंमें धार्मिकताके साथ नैतिकता समाविष्ट है । उनका पालक सच्चा श्रावक होता है । वह धार्मिक होनेके साथ अनैतिक नहीं हो सकता उसके व्यवहारमें सचाई, ईमानदारी होती है । किन्तु आज तो धार्मिकताका नैतिकताके साथ विछोह जैसा हो गया है ।
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