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________________ लाटीसंहिता आदेशस्योपदेशेभ्यः स्याद्विशेषः स भेदभाक् । आदत्ते गुरुणा दत्तं नोपदेशेष्वयं विधिः ॥ १६९ न निषिद्वस्तदादेशो गृहिणां व्रतधारिणाम् । दीक्षाचार्येण दीक्षेव दीयमानास्ति तत्क्रिया ॥ १७० सनिषिद्धो यथाम्नायादव्रतिनां मनागपि । हिंसक श्चोपदेशोऽपि नोपयुज्योऽत्र कारणात् ॥१७१ मुनितराणां वा गृहस्थव्रतधारिणाम् । आदेशश्चोपदेशो वा न कर्तव्यो बधाश्रितः ॥ १७२ न चाऽशक्यं प्रसिद्धं यन्मुनिभिर्व्रतधारिभिः । मूर्तिमच्छक्तिसर्वस्वं हस्तरेखेव दशितम् ॥१७३ नूनं प्रोक्तोपदेशोऽपि न रागाय विरागिणाम् । रागिणामेव रागाय ततोऽवश्यं स वर्जितः ॥ १७४ न निषिद्धः स आदेशो नोपदेशो निषेधितः । नूनं सत्पात्रदानेषु पूजायामहंतामपि ॥ १७५ यद्वाssदेशोपदेशौ स्तो द्वौ तौ निरवद्यकर्मणि । यत्र सावद्यलेशोऽपि तत्राऽऽदेशो न जातुचित् ॥१७६ सहासंयमिभिर्लोकः संसर्गं भाषणं रतिम् । कुर्यादाचार्य इत्येकेनासौ सूरिर्न चार्हतः ॥ १७७ सङ्घसम्पोषकः सूरिः प्रोक्तः कैश्चिन्मतेरिह । धर्मादेशोपदेशाभ्यां नोपकारोऽपरोऽस्त्यतः ॥ १७८ यद्वा मोहात्प्रमादाद्वा कुर्याद्यो लौकिकों क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चान्तर्व्रताच्च्युतः ॥ १७९ इत्युक्तव्रततपःशीलसंयमादिधरो गणी । नमस्यः स गुरुः साक्षात्तदन्यो न गुरुर्गणी ॥१८० द्वारा प्रायश्चित्त देता है वह आचार्य है || १६८ ।। उपदेशोंसे आदेश में पार्थक्य दिखलाने वाला यह अन्तर है कि आदेश में 'मैं गुरुके द्वारा दिये गये व्रतको स्वीकार करता हूँ' यह विधि मुख्य रहती है किन्तु उपदेशों में यह विधि मुख्य नहीं रहती ॥ १६९ ॥ व्रतधारी गृहस्थोंके लिये भी आचार्यका आदेश करना निषिद्ध नहीं है, क्योंकि दीक्षाचार्य के द्वारा दी गयी दीक्षाके समान ही वह आदेशविधि मानी गई है || १७०|| किन्तु जो अव्रती हैं, उनके लिए आगमकी परिपाटीके अनुसार थोड़ा भी आदेश करना निषिद्ध है और इसी प्रकार कारणवश हिंसाकारी उपदेश करना भी उपयुक्त नहीं है ॥ १७१ ॥ | चाहे मुनिव्रतधारी हों चाहे गृहस्थव्रतधारी हों इन दोनोंके लिये हिंसाका अवलम्बन करनेवाला आदेश और उपदेश नहीं करना चाहिये || १७२ || जो यह प्रसिद्ध है कि व्रतधारी मुनि मूर्तिमान पदार्थों की समस्त शक्तियों को हस्तरेखाके समान दिखला देते हैं इसलिये उक्त उपदेश और आदेश उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकता सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि पूर्वोक्त उपदेश विरागियोंके लिए रागका कारण नहीं है तो भी जो रागी हैं उनके लिये वह रागका कारण अवश्य है इसलिये उसका निषेध किया गया है || १७३ - १७४॥ किन्तु सत्पात्रोंके लिये दान और अरहन्तोंकी पूजा इन कार्योंमें न तो वह आदेश ही निषिद्ध है और न वह उपदेश हो निषिद्ध है || १७५ | | अथवा आदेश और उपदेश ये दोनों ही निषिद्ध कार्योंके विषयमें उचित माने गये हैं, क्योंकि जिस कार्य में सावद्यका लेशमात्र भी हो उस कार्यका आदेश करना कभी भी उचित नहीं है || १७६ || कितने ही आचार्योंका मत है कि आचार्य असंयमी पुरुषोंके साथ सम्बन्ध, भाषण और प्रीति कर सकता है परन्तु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करनेवाला न तो आचार्य ही हो सकता है और न अरहन्तके मतका अनुयायी ही हो सकता है ।।१७७।। जो संघका पालन-पोषण करता है वह आचार्य है ऐसा किन्हीं अन्य लोगोंने ही अपनी मति से कहा है अतः यही निश्चय होता है कि धर्मका आदेश और उपदेशके सिवाय आचार्यका और कोई उपकार नहीं है || १७८ | अथवा मोहवश या प्रमाद वश होकर जो लौकिकी क्रियाको करता है वह उतने काल तक आचार्य नहीं रहता इतना ही नहीं किन्तु तब वह अन्तरंग व्रतोंसे च्युत हो जाता है ||१७९|| इस प्रकार पूर्वोक्त व्रत, तप, शील और संयम आदिको धारण करने - Jain Education International ६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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