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श्रावकाचार-संग्रह नोां छपस्थावस्थायामर्वागेवास्तु तत्वायः । अंशान्मोहकायस्यांशात्सर्वतः सर्वतः क्षयः ॥१५६ नासिद्धं निर्जरा तत्त्वं सदृष्टेः कृत्स्नकर्मणाम् । आदृग्मोहोदयाभावात्तच्चासंख्यगुणा क्रमात् ॥१५७ ततः कर्मत्रयं प्रोक्तमस्ति यद्यपि सांप्रतम् । रागद्वेषविमोहानामभावाद गुरुता मता ॥१५८ अथाऽस्त्येकः स सामान्यात्सद्विशेषात्रिधा मतः। एकोऽप्यग्निर्यथा तार्ण्यः पार्यो दाळस्त्रिधोच्यते १५९ आचार्यः स्थादुपाध्यायः साधुश्चेति त्रिधा गतिः । स्युविशिष्टपदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुञ्जराः ॥१६० एको हेतुः क्रियाऽप्येका विधश्चैको बहिः समः । तपो द्वादशधा चैकं व्रतं चैकं च पञ्चधा ॥१६१ त्रयोदशविध चकं चारित्रं समतैकया। मूलोत्तरगुणाश्चैको संयमोऽप्येकधा मतः ॥१६२ परीषहोपसगाणां सहनं च समं स्मृतम् । आहारादिविधिश्चैकश्वर्यास्थानासनादयः ॥१६३ मार्गो मोक्षस्य सदृष्टिः ज्ञानं चारित्रमात्मनः । रत्नत्रयं समं तेषामपि चान्तर्बहिस्थितम् ॥१६४ ध्याता ध्यानं च ध्येयश्च ज्ञाता ज्ञानं च ज्ञेयसात् । चतुर्विधाराधनापि तुल्या क्रोधादिजिष्णुता ॥१६५ किवात्र बहनोक्तेन तद्विशेषोऽवशिष्यते । विशेषाच्छेषनिःशेषो न्यायादस्त्यविशेषभाक् ॥१६६ आचार्योऽनादितो रूढर्योगादपि निरुच्यते । पञ्चाचारं परेभ्यः स आचारयति संयमी ॥१६७ अपि छिन्ने वते साधोः पुनः सन्धानमिच्छतः । तत्समादेशदानेन प्रायश्चित्तं प्रयच्छति ॥१६८ होने पर इनका क्षय होता है ।।१५५।। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि छद्मस्थ अवस्थामें ज्ञानावरणादि कर्मोंका क्षय होनेके पहले ही मोहनीयका क्षय हो जाता है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि मोहनीयका एकदेश क्षय होनेसे इनका एकदेश क्षय होता है और मोहनीयका सर्वथा क्षय होनेसे इनका भी सर्वथा क्षय हो जाता है ॥१५६॥ सम्यग्दृष्टिके समस्त कर्मोंकी निर्जरा होती है यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहनीयके उदयका अभाव होनेपर वहाँसे लेकर वह उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी होने लगती है ॥१५७॥ इसलिये छद्मस्थ गुरुओंके यद्यपि वर्तमान में तीनों कर्मोका सद्भाव कहा गया है । तथापि राग, द्वेष और मोहका हो अभाव हो जानेसे उनमें गुरुपना माना गया है ॥१५८॥ वह गुरु सामान्य रूपसे एक प्रकारका और अवस्था विशेषको अपेक्षासे तीन प्रकारका माना गया है । जैसे अग्नि यद्यपि एक ही है तो भी वह तिनकेकी अग्नि, पत्तेकी अग्नि और लकड़ीकी अग्नि इस तरह तीन प्रकारको कही जाती है। वैसे ही प्रकृतमें जानना चाहिये ॥१५९।। इनके ये भेद आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन हैं। ये तीनों ही मुनिकुंजर यद्यपि अपने अपने विशेष पद पर स्थित हैं ॥१६०॥ तथापि इनके मुनि होनेका कारण एक है; क्रिया एक है। बाह्य वेष एक सा है; बारह प्रकारका तप एक सा है; पांच प्रकारका व्रत ऐ
तेरह प्रकारका चारित्र एक सा है: समता एक सी है: मल और उत्तर गण भी एकसे हैं: संयम भी एक सा है; परीषह और उपसर्गोका सहन करना भी एक सा है; आहार आदिकी विधि भी एक सी है; चर्या, स्थान और आसन आदि भी एकसे हैं; मोक्षका मार्ग जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप आत्मीक रत्नत्रय है वह भी उनके भीतर और बारह समान है। इसी प्रकार ध्याता, ध्यान, ध्येय, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय, चार प्रकारकी आराधनाएँ और क्रोधादिकका जीतना ये भी समान हैं ॥१६१-१६५।। इस विषयमें बहुत कहां तक कहें। उनका जो कुछ विशेष है वही कहना बाकी है, क्योंकि विशेष रूपसे जो भी शेष रह जाता है वह न्यायानुसार अविशेष (समान) कहलाता है ॥१६६।। अनादिकालीन रूढि और निरुक्त्यर्थ इन दोनोंकी अपेक्षासे आचार्य शब्दका यह अर्थ लिया जाता है कि जो संयमी दूसरोंसे पांच आचारका आचरण कराता है वह आचार्य है ॥१६७॥ तथा व्रतभंग होने पर फिरसे उस व्रतको जोड़नेकी इच्छा करनेवाले साधुको जो आदेश
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