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________________ काटीसंहिता अस्त्यवस्थाविशेषोऽत्र युक्तिस्वानुभवागमात् । शेषसंसारिजोवेम्यस्तेषामेवातिशायनात् ॥१४४ भाविनगमनयायत्तो भूष्णुस्तद्वानिवेष्यते । अवश्यं भावतो व्याप्तेः सद्भावात्सिद्धसाधनात् ॥१४५ अस्ति सद्दर्शनं तेषु मिथ्याकर्मोपशान्तितः । चारित्रं देशतः सम्यक् चारित्रावरणक्षतेः ॥१४६ ततः सिद्धं निसर्गाद्वै शुद्धत्वं हेतुदर्शनात् । मोहकर्मोदयाभावात् तत्कार्यस्याप्यसम्भवात् ॥१४७ तच्छुद्धत्वं सुविख्यातनिर्जराहेतुरञ्जसा । निदानं संवरस्यापि क्रमानिर्वाणभागपि ॥१४८ यद्वा स्वयं तदेवार्थान्निजरादित्रयं यतः । शुद्धभावाविनाभावि द्रव्यनामापि तत्त्रयम् ॥१४९ निर्जरादिनिदानं यः शुद्धो भावश्विदात्मकः । परमाहः स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरुः ॥१५० न्यायाद्गुरुत्वहेतुः स्यात्केवलं दोषसंक्षयः । निर्दोषो जगतः साक्षी नेता मार्गस्य नेतरः ॥१५१ नालं छद्मस्थताप्येषा गुरुत्वक्षतये मुनेः । रागाद्यशुद्धभावानां हेतुर्मोहैककमै तत् ॥१५२ नन्वावत्तिद्वयं कर्म वीर्यविध्वंसि कर्म तत् । अस्ति तत्राप्यवश्यं वै कुतः शुद्धत्वमत्र चेत् ॥१५३ सत्यं किन्तु विशेषोऽस्ति प्रोक्तकर्मत्रयस्य च । मोहकर्मातिनाभूतं बन्धसत्त्वोदयक्षयम् ॥१५४ तद्यथा बध्यमानेऽस्मिन् तद्वन्धो मोहबन्धसात् । तत्सत्त्वे सत्त्वमेतस्य पाके पाकः क्षये क्षयः ॥१५५ न्यायानुसार गुरुका लक्षण पाया जाता है। ये उनसे भिन्न और कोई दूसरी अवस्थाको धारण करनेवाले नहीं हैं ॥१४३।। इनमें अवस्था विशेष पाई जाती है यह बात युक्ति, आगम और अनुभवसे सिद्ध है, क्योंकि उनमें शेष संसारी जीवोंसे कोई विशेष अतिशय देखा जाता है ॥१४४॥ भावि नैगमनयको अपेक्षासे जो होनेवाला है वह उस पर्यायसे युक्तको तरह कहा जाता है, क्योंकि उसमें नियमसे भावकी व्याप्ति पाई जाती है इसलिए ऐसा कहना युक्तियुक्त है ।।१४५।। उनमें दर्शनमोहनीय कर्मको उपशान्ति (उपशम, क्षय, क्षयोपशम) हो जानेसे सम्यग्दर्शन भी पाया जाता है और चारित्रावरण कर्मका एकदेश क्षय (क्षयोपशम) हो जानेसे सम्यक्चारित्र भी पाया जाता है ।।१४६।। इसलिए उनमें स्वभावसे ही शुद्धता सिद्ध होती है और इसकी पुष्टि करनेवाला हेतु भी पाया जाता है। यतः उनके मोहनीय कर्मका उदय नहीं है अतः वहाँ मोहनीय कर्मका कार्य भी नहीं पाया जाता है ।।१४७|| उनकी यह शुद्धता नियमसे निर्जराका कारण है, संवरका कारण है और क्रमसे मोक्ष दिलानेवाली है यह बात सुप्रसिद्ध है ॥१४८।। अथवा वह शुद्धता ही नियमसे स्वयं निर्जरा आदि तीन रूप है, क्योंकि शुद्ध भावोंसे अविनाभाव रखनेवाला- द्रव्य इन तीन रूप ही होता है ॥१४९।। आशय यह है कि आत्माका जो शुद्ध भाव निर्जरा आदिका कारण है वही परमपूज्य है और उससे युक्त आत्मा ही परम गुरु है ।।१५०।। न्यायानुसार गुरुपनेका कारण केवल दोषोंका नाश हो जाना ही है । जो निर्दोष है वही जगत्का साक्षी है और वही मोक्षमार्ग का नेता है अन्य नहीं ॥१५१।। मुनिकी यह छद्मस्थता भी गुरुपनेका नाश करनेके लिए समर्थ नहीं है, क्योंकि रागादि अशुद्ध भावोंका कारण एक मोह कर्म माना गया है ।।१५२॥ शंकाछद्मस्थ गुरुओंमें दोनों आवरण कर्म और वीर्यका नाश करनेवाला अन्तरायकर्म नियमसे है इसलिए उनमें शुद्धता कैसे हो सकती है ? ॥१५३॥ समाधान-यह बात ठीक है किन्तु इतनी विशेषता है कि उक्त तीनों कर्मोका बन्ध, सत्त्व, उदय और क्षय मोहनीय कर्मके साथ अविनाभावी है ॥१५४॥ खुलासा इस प्रकार है कि मोहनीयका बन्ध होनेपर उसके साथ साथ ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध होता है। मोहनीयका सत्त्व रहते हुए इनका सत्त्व रहता है, मोहनीयका पाक होते समय इनका पाक होता है और मोहनीयका क्षय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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