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________________ श्रावकाचार-संग्रह विष्णुर्ज्ञानेन सर्वार्थविस्तृतत्वात्कथञ्चन । ब्रह्मा बह्मज्ञरूपत्वाद्धरिर्दुःखापनोदनात् ॥१३२ इत्याद्यनेकनामापि नानेकोऽस्ति स्वलक्षणात् । यतोऽनन्तगुणात्मैकद्रव्यं स्यात्सिद्धसाधनात् ॥१३३ चतुर्विंशतिरित्यादियावदन्तमनन्तता । तद्वहुत्वं न दोषाय देवत्वैकविधत्वतः ॥१३४ प्रदीपानामनेकत्वं न प्रदीपत्वहानये । यतोऽत्रैकविधत्वं स्यान्न स्यान्नानाप्रकारतः ॥१३५ न चाऽऽशक्यं यथासंख्यं नामतोऽप्यस्त्वनेकधा । न्यायादेकगुणं चैकं प्रत्येकं नाम चैककम् ॥१३६ नामतः सर्वतो मुख्यं संख्यातस्यैव सम्भवात् । अधिकस्य ततो वाचा व्यवहारस्य दर्शनात् ॥१३७ वृद्धः प्रोक्तमतः सूत्रे तत्त्वं वागतिवति यत् । द्वादशाङ्गाङ्गबाह्यं च श्रुतं स्थूलार्थगोचरम् ॥१३८ कृत्स्नकर्मक्षयाज्ज्ञानं क्षायिक दर्शनं पुनः । अत्यक्षं सुखमामोत्थं वीर्यं चेति चतुष्टयम् ॥१३९ सम्यक्त्वं चैव सूक्ष्मत्वमव्याबाधगुणः स्वतः । अस्त्यगुरुलघुत्वं च सिद्धे चाष्टगुणाः स्मृताः ॥१४० इत्याद्यनन्तधर्माढयः कर्माष्टकविजितः । मुक्तोऽष्टादशभिर्दोषैर्देवः सेव्यो न चेतरः ॥१४१ अर्थाद्गुरुः स एवास्ति श्रेयोमार्गोपदेशकः । भगवांस्तु यतः साक्षान्नेता मोक्षस्य वर्त्मनः ॥१४२ तेभ्योऽवगिपि छद्मस्थरूपा तद्रूपधारिणः । गुरवः स्युगुरोन्यायान्न्यायोऽवस्थाविशेषभाक् ॥१४३ है इसलिए जिन कहलाता है, सब देव इससे नीचे हैं इसलिए महादेव कहलाता है, सुख देनेवाला है इसलिए शंकर कहलाता है ॥१३१॥ ज्ञान द्वारा कथंचित् सब पदार्थों में व्याप रहा है इसलिए विष्णु कहलाता है, ब्रह्मके स्वरूपका ज्ञाता है इसलिए ब्रह्मा कहलाता है और दुःखोंका हरण करनेवाला है इसलिए हरि कहलाता है ॥१३२॥ इस प्रकार यद्यपि इसके अनेक नाम हैं तथापि वह अपने लक्षणकी अपेक्षा अनेक नहीं है, क्योंकि वह साधनोंसे भले प्रकार सिद्ध अनन्तगुणात्मक एक ही द्रव्य है ॥१३३।। यद्यपि चौबीस तीर्थंकरोंसे लेकर अन्ततक विचार करनेपर व्यक्ति रूपसे देव अनन्त हैं तथापि वह देवोंका बहुत्व दोषाधायक नहीं है, क्योंकि इन सबमें एक प्रकारका ही देवत्व पाया जाता है ॥१३४॥ जिस प्रकार दीपक अनेक हैं तो भी उससे प्रदीप सामान्यकी हानि नहीं होती, क्योंकि जितने भी दीपक होते हैं वे सब एक ही प्रकारके पाये जाते हैं नाना प्रकारके नहीं। उसी प्रकार व्यक्ति रूपसे देवोंके अनेक होनेपर भी कोई हानि नहीं है, क्योंकि देवत्व सामान्यकी अपेक्षा सब देव एक हैं ।।१३५।। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि नामकी अपेक्षा क्रमसे देवके अनन्त भेद रहे आवें, क्योंकि न्यायानुसार एक एक गुणकी अपेक्षा एक एक नाम रखा जा सकता है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार नामकी अपेक्षा देवके मुख्य रूपसे संख्यात भेद ही सम्भव हैं, क्योंकि वचन व्यवहार इससे अधिक नहीं दिखाई देता है ॥१३६-१३७। इसीसे पूर्वाचार्योंने सूत्रमें यह कहा है कि तत्त्व वचनके अगोचर है और बारह अंग तथा अंग बाह्यरूप श्रुत स्थूल अर्थको विषय करता है ॥१३८।। सम्पूर्ण कर्मोके क्षयसे सिद्धके ये आठ गुण होते हैं-क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, अतीन्द्रिय सुख और आत्मासे उत्पन्न होनेवाला वीर्य-ये चार अनन्त चतुष्टय होते हैं ।।१३९।। इनके सिवाय सम्यक्त्व, सूक्ष्मत्व, अव्याबाध और अगरुलघु ये चार गुण और होते हैं ॥१४०।। इस प्रकार जो ज्ञानादि अनन्त धर्मोसे युक्त है, आठ कर्मोंसे रहित है, मुक्त है और अठारह दोषोंसे रहित है वही देव सेवनीय है अन्य नहीं ।।१४१।। वास्तवमें वही देव सच्चा गुरु है, वही मोक्ष मार्गका उपदेशक है, वही भगवान् है और वही मोक्ष मार्गका साक्षात् नेता है ।।१४२।। इन अरहंत और सिद्धोंसे नीचे भी जो अल्पज्ञ है और उसी रूप अर्थात् दिगम्बरत्व, वीतरागत्व और हितोपदेशित्वको धारण करनेवाले हैं वे गुरु हैं, क्योंकि इनमें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org | Jain Education International
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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