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________________ लाटीसंहिता अस्ति श्रद्धानमेकेषां लोकरूढिवशादिह । धनधान्यप्रदा नूनं सम्यगाराधिताम्बिका ॥ ११९ अपरेऽपि यथाकामं देवानिच्छन्ति दुधियः । सदोषानपि निर्दोषानिव प्रज्ञापराधतः ॥ १२० नोक्तस्तेषां समुद्देशः प्रसङ्गादपि सङ्गतः । लब्धवर्णो न कुर्याद्वै निस्सारं ग्रन्थविस्तरम् ॥१२१ अधर्मस्तु कुदेवानां यावानाराधनोद्यमः । तैः प्रणीतेषु धर्मेषु चेष्टा वाक्कायचेतसाम् ॥१२२ कुगुरुः कुत्सिताचारः सशल्यः सपरिग्रहः । सम्यक्त्वेन व्रतेनापि युक्तः स्यात्सद्गुरुतः ॥ १२३ 'अत्रोद्देशोऽपि न श्रेयान्सर्वतोऽतीव विस्तरात् । आदेयो विधिरत्रोक्तो नादेयोऽनुक्त एव सः ॥ १२४ दोषो रागादिचिद्भावः स्यादावरणं च कर्म तत् । तयोरभावोऽस्ति निःशेषो यत्रासौ देव उच्यते १२५ अस्त्यत्र केवलं ज्ञानं क्षायिकं दर्शनं सुखम् । वीयं चेति सुविख्यातं स्यादनन्तचतुष्टयम् ॥ १२६ एको देवः स सामान्याद् द्विधावस्थाविशेषतः । संख्पर्धा नामसंदर्भाद् गुणेभ्यः स्यादनन्तधा ॥१२७ एको देवः स द्रव्यार्थात्सिद्धः शुद्धोपलब्धितः । अर्हन्निति च सिद्धश्व पर्यायार्थाद्विधा मतः ॥ १२८ दिव्यौदारिकदेहस्थो धौतघातिचतुष्टयः । ज्ञानदृग्वीर्यसौख्याढ्यः सोऽर्हन् धर्मोपदेशकः ॥१२९ मूर्तिमद्देहनिर्मुक्तो लोको लोकाग्रसंस्थितः । ज्ञानाद्यष्टगुणोपेतो निष्कर्मा सिद्धसंज्ञकः ॥१३० अर्हन्निति जगत्पूज्यो जिनः कर्मारिशातनात् । महादेवोऽधिदेवत्वाच्छङ्करोऽभिसुखावहात् ॥१३१ है अतः लोकमूढता अकल्याणकारी मानी गई है | ११८ || लोकमूढतावश किन्हीं पुरुषोंका ऐसा श्रद्धा है कि अम्बिकाकी अच्छी तरह आराधना करनेपर वह धन-धान्य देती है ॥ ११९ ॥ इसी तरह अन्य मिथ्यादृष्टि जीव भी अज्ञानवश सदोष देवोंको भी निर्दोष देवोंके समान इच्छानुसार मानते हैं ॥१२०॥ प्रसंगानुसार सुसंगत होते हुए भी उनका निर्देश यहाँपर नहीं किया है, क्योंकि जिसे चार अक्षरका ज्ञान है वह निष्प्रयोजन ग्रन्थका विस्तार नहीं करता ॥ १२१ ॥ कुदेवोंको आराधनाके लिये जितना भी उद्यम है वह और उनके द्वारा कहे गये धर्ममें वचन, काय और मनकी प्रवृत्ति यह सब अधर्म है ॥ १२२ ॥ | जिसका आचार कुत्सित है जो शल्य और परिग्रह सहित है वह कुगुरु है, क्योंकि सद्गुरु सम्यक्त्व और व्रत इन दोनोंसे युक्त होता है ॥ १२३ ॥ इस विषय में भी अत्यन्त विस्तार से लिखना सर्वथा उचित नहीं है, क्योंकि जो विधि आदेय है वही यहाँ कही गयी है ओर जो अनादेय है वह कही ही नहीं गयी है || १२४|| रागादिका पाया जाना यह दोष है और ज्ञानावरणादि ये कर्म हैं जिनके इन दोनोंका सर्वथा अभाव हो गया है वह देव कहा जाता है || १२५ ॥ उसके केवलज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक सुख और क्षायिक वीर्य यह सुविख्यात अनन्तचतुष्टय होता है || १२६ ॥ द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा वह देव एक है, अवस्था विशेषकी अपेक्षा दो प्रकारका है, संज्ञावाचक शब्दोंकी अपेक्षा संख्यात प्रकार है और गुणोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकारका है || १२७॥ शुद्धोपलब्धिरूप द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे वह देव एक प्रकारका माना गया है और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे अरहन्त और सिद्ध इस तरह दो प्रकारका माना गया है || १२८|| जो दिव्य औदारिक देहमें स्थित है; चारों घातिया कर्मोंसे रहित है; ज्ञानदर्शन, वीर्य और सुखसे परिपूर्ण है और धर्मका उपदेश देनेवाला है वह अरहन्तदेव है ॥ १२९ ॥ जो मूर्तशरीर से रहित है; सम्पूर्ण चर और अचर पदार्थोंको युगपत् जानने और देखनेवाला है, लोकके अग्रभागमें स्थित है, ज्ञानादि आठ गुण सहित है और ज्ञानावरणादिक आठ कर्मोंसे रहित है वह सिद्ध देव है ॥१३०॥ यह देव जगत् पूज्य है इसलिए अर्हत् कहलाता है, कर्मरूपी शत्रुओंका नाश कर दिया Jain Education International ६१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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