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________________ ६० श्रावकाचार-संग्रह जले जंवालवज्जीवे यावत्कर्माशुचि स्फुटम् । अहं ते चाविशेषाद्वा नूनं कर्ममलीमसाः ॥१०६ अस्ति सद्दर्शनस्यासौ गुणो निविचिकित्सकः । यतोऽवश्यं स तत्रास्ति तस्मादन्यत्र न क्वचित् ॥१०७ कर्मपर्यायमात्रेषु रागिणः स कुतो गुणः । सद्विशेषेऽपि संमोहाद् द्वयोरैक्योपलब्धितः ॥१०८ इत्युक्तो युक्तिपूर्वोऽसौ गुणः सद्दर्शनस्य यः । नाविवक्षोऽपि दोषाय विवक्षो न गुणाप्तये ॥१०९ अस्ति चामूढदृष्टिः सा सम्यग्दर्शनशालिनी। ययाऽलङ्कृतमात्र सद्भाति सद्दर्शनं नरि ॥११० अतत्वे तत्त्वश्रद्धानं मूढदृष्टिः स्वलक्षणात् । नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यातः सोऽस्त्यमूढदृक् १११ अस्त्यसद्धेतुदृष्टान्तैमिथ्यार्थः साधितोऽपरैः । नाप्यलं तत्र मोहाय दृग्मोहस्योदयक्षतेः ॥११२ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थे दशितेऽपि कुदृष्टिभिः । नाल्पश्रुतः समुह्येत किं पुनश्चे बहुश्रुतः ॥११३ अर्थाभासेऽपि तत्रोच्चैः सम्यग्दृष्टेर्न मूढता । स्थूलानन्तरितोपात्तमिथ्यार्थेऽस्य कुतो भ्रमः ॥११४ तद्यथा लौकिको रूढिरस्ति नाना विकल्पसात् । निःसारैराश्रिता पुंभिरथानिष्टफलप्रदाः ॥११५ अफला कुफला हेतुशून्या योगापहारिणी । दुस्त्याज्या लौकिकी रूढिः कैश्चि दुष्कर्मपाकतः ॥११६ अदेवे देवबुद्धिः स्यादधर्मे धर्मधोरिह । अगुरौ गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवविमूढता ॥११७ कुदेवाराधनां कुर्यादैहिकश्रेयसे कुधीः । मृषालोकोपचारत्वादश्रेया लोकमूढ़ता ॥११८ भ्रमात्मा उनमें भेद करने लगता है। वैसे ही प्रकृतमें जानना चाहिए ॥१०५॥ जैसे जलमें काई होती है ठीक वैसे ही जीवमें जब तक अशुचि कर्म मौजूद है तब तक मैं और वे सब संसारी जीव सामान्यरूपसे कर्मोंसे मैले हो रहे हैं ।।१०६॥ यह निर्विचिकित्सा सम्यग्दर्शनका एक गुण है क्योंकि वह सम्यग्दर्शनके होनेपर ही होता है उसके विना और किसीके नहीं होता ॥१०७॥ किन्तु जो केवल कर्मकी पर्यायोंमें अनुराग करता है उसके वह गुण कैसे हो सकता है, क्योंकि कर्मकृत पर्याय यद्यपि सत्से भिन्न है तो भी मिथ्यादृष्टि जीव मोहवश उन दोनोंको एक समझ बैठा है ॥१०८।। इस प्रकार युक्तिपूर्वक जो यह सम्यग्दर्शनका गुण कहा गया है उसकी यदि अविवक्षा कर दी जाय तो कोई दोष नहीं है और विवक्षित रहनेपर कोई लाभ नहीं है ।।१०९।। वह अमूढ़दृष्टि सम्यग्दर्शनसे सुशोभित मानी गई है जिसके होनेपर इस जीवके सम्यग्दर्शन चमक उठता है ॥११०॥ अतत्त्वमें तत्त्वका श्रद्धान करना यह अपने लक्षणके अनुसार मूढदृष्टि है। यह जिस जीवके नहीं होती है वह अमढदष्टि कहलाता है॥११॥ दसरे दर्शनवालोंने मिथ्या हेत और दृष्टान्तों द्वारा मिथ्या पदार्थकी सिद्धि की है वह मिथ्या पदार्थ सम्यग्दृष्टिके दर्शनमोहनीयका उदय नहीं रहनेसे मोह पैदा करनेके लिये समर्थ नहीं होता ॥११२| मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों के दिखलाये जानेपर भी उनमें अल्पश्रुत ही जब मोहित नहीं होता तब जो बहुश्रुत है वह मोहित ही कैसे होगा ।।११३॥ इस प्रकार इन सूक्ष्म आदि अर्थाभासोंमें भी जब सम्यग्दृष्टिके मूढता नहीं होती तब फिर स्थूल, समीपवर्ती और उपात्त मिथ्या अर्थोंमें इसे कैसे भ्रम हो सकता है ॥११४॥ उदाहरणार्थ-लौकिकी रूढि नाना प्रकारकी है, जिसे निःसार पुरुषोंने आश्रय दे रखा है, जिसका फल अनिष्ट है ॥११५॥ जो निष्फल है, खोटे फलवाली है, जिसकी पुष्टिमें कोई समुचित हेतु नहीं मिलता और जो निरर्थक है तो भी कितने ही पुरुष खोटे कर्मके उदयसे उस लौकिकी रूढिको छोड़ने में कठिनताका अनुभव करते हैं ॥११६।। जीवके जो अदेवमें देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और अगुरुमें गुरुबुद्धि होती है वह देवविमूढता कही जाती है ॥११७॥ मिथ्यादृष्टि जीव ऐहिक सुखके लिये कुदेवको आराधना करता है । यह झूठा लोकाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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