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________________ HHHHI बावकाचार-संग्रह उपाध्यायः स साध्वीयान् वादी स्याद्वादकोविदः । वाग्मी वाग्ब्रह्मसर्वज्ञः सिद्धान्तागमपारगः ॥१८१ कविः प्रत्यग्रसूत्राणां शब्दार्थैः सिद्धसाधनात् । गमकोऽर्थस्य माधुर्ये धुर्यो वक्तृत्ववर्त्मनाम् ॥१८२ उपाध्यायत्वमित्यत्र श्रुताम्यासोऽस्ति कारणम् । यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद्गुरुः ॥१८३ शेषस्तत्र वतादीनां सर्वसाधारणो विधिः । कुर्याद्धर्मोपदेशं स नादेशं सूरिवत्वचित् ॥१८४ तेषामेवाश्रमं लिङ्गं सूरीणां संयमं तपः । आश्रयेत् शुद्धचारित्रं पञ्चाचारं स शुद्धधीः ॥१८५ मूलोत्तरगुणानेव यथोक्तानाचरेच्चिरम् । परीषहोपसर्गाणां विजयी स भवेद् ध्रुवम् ॥१८६ अत्राऽतिविस्तरेणालं नूनमन्तर्बहिर्मुनेः । शुद्धवेषधरो धीरो निर्ग्रन्थः स गणाग्रणोः ॥१८७ उपाध्यायः समाख्यातो विख्यातोऽस्ति स्वलक्षणैः । अधुना साध्यते साधोर्लक्षणं सिद्धमागमात् ॥१८८ मार्ग मोक्षस्य चारित्रं सहरज्ञप्तिपुरस्सरम् । साधयत्यात्मसिद्धयर्थ साधुरन्वर्थसंज्ञकः ॥१८९ नोचे वार्चयमी किञ्चिद्धस्तपादादिसंज्ञया । न किञ्चिद्दर्शयेत्स्वस्थो मनसाऽपि न चिन्तयेत् ॥१९० आस्ते स शुद्धमात्मानमास्तिघ्नुवानश्च परम् । स्तिमितान्तर्बहिर्जल्पो निस्तरङ्गाब्धिवन्मुनिः ॥१९१ नावेश नोपदेशं वा नादिशेत्स मनागपि । स्वर्गापवर्गमार्गस्य तद्विपक्षस्य किं पुन: ॥१९२ वैराग्यस्य परां काष्ठामधिरूढोऽधिकप्रभः । दिगम्बरो यथाजातरूपधारी दयापरः ॥१९३ वाला आचार्य ही नमस्कार करने योग्य है और वहो साक्षात् गुरु है। इससे भिन्न स्वरूपका धारण करनेवाला न तो गुरु ही हो सकता है और न आचार्य ही हो सकता है ॥१८०॥ समाधान करनेवाला, वाद करनेवाला, स्याद्वाद विद्याका जानकार, वाग्मी, वचन ब्रह्ममें पारंगत, सिद्धान्त शास्त्रका पारगामी, वृत्ति तथा मुख्य सूत्रोंका शब्द और अर्थके द्वारा सिद्ध करनेवाला होनेसे कवि, अर्थकी मधुरताका ज्ञान करनेवाला और वक्तृत्व कलामें अग्रणी उपाध्याय होता है ।।१८ १८२।। उपाध्याय होने में मुख्य कारण श्रुतका अभ्यास है। जो स्वयं पढ़ता है और शिष्योंको पढ़ाता है वह उपाध्याय है ॥१८३॥ उपाध्यायका व्रतादिक सम्बन्धी शेष सब विधि मुनियोंके समान होतो है। यह धर्मका उपदेश कर सकता है किन्तु आचार्यके समान किसीको आदेश नहीं कर सकता ॥१८४॥ शुद्ध बुद्धि वाला वह उन्हीं आचार्योके आश्रममें रहता है। उन्हींके संयम, तप, शुद्ध चारित्र और पंचाचारका पालन करता है ॥१८५।। वह चिरकालतक शास्त्रोक्त विधिसे मूलगुणों और उत्तरगुणोंका पालन करता है। परोषह और उपसर्गोंको जीतनेवाला होता है तथा जितेन्द्रिय होता है ।।१८६।। यहाँपर अधिक विस्तार करना व्यर्थ है किन्तु इतना ही कहना पर्याप्त है कि वह अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारसे मुनिके शुद्ध वेषको धारण करनेवाला, बुद्धिमान, निर्ग्रन्थ और गणमें प्रधान होता है।।१८७।। इस प्रकार अपने लक्षणोंसे प्रसिद्ध उपाध्यायका स्वरूप कहा । अब साधुके लक्षणका विचार करते हैं जो कि आगममें भलीभाँति सिद्ध है ॥१८८।। मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र है । जो आत्मसिद्धि के लिए इसका साधन करता है वह साधु है। यह इसका सार्थक नाम है ।।१८९॥ यह साधु स्वस्थ रहता है इसलिए न तो कुछ कहता है, न हाथ पैर आदिसे किसी प्रकारका इशारा करता है और न मनसे ही कुछ विचार करता है ॥१९०॥ किन्तु वह मुनि केवल शुद्ध आत्मामें लीन रहता है, अन्तरंग और बहिरंग जल्पसे रहित हो जाता है और तरंग रहित समुद्रके समान शान्त रहता है ॥१९१॥ वह स्वर्ग और मोक्षके मार्गका थोड़ा भी न तो आदेश करता है और न उपदेश हो करता है फिर विपक्षका तो कर ही कैसे सकता है ।।१९२॥ वैराग्यकी चरम सीमाको प्राप्त, अधिक प्रभावान्, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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