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________________ ४८ श्रावकाचार-संग्रह सन्मानादि यथाशक्ति कर्तव्यं च सर्मिणाम् । वतिनां चेतरेषां वा विशेषाद् ब्रह्मचारिणाम् ॥१६५ नारीभ्योऽपि वताढयाभ्यो न निषिद्धं जिनागमे । देयं सन्मानदानादि लोकानामविरोधतः ।।१६६ जिनचैत्यगृहादीनां निर्माणे सावधानता।। यथासम्पद्विधेयास्ति दृष्या नावद्यलेशतः ॥१६७ सिद्धानामहतां चापि यन्त्राणि प्रतिमाः शुभाः । चैत्यालयेषु संस्थाप्य द्राक् प्रतिष्ठापयेत्सुधीः ॥१६८ अपि तीर्थादियात्रा विदध्यात्सोद्यतं मनः । श्रावकः स च तत्रापि संयमं न विराधयेत् ॥१६९ नित्ये नैमित्तिके चैत्यजिनविम्बमहोत्सवे । शैथिल्यं नैव कर्तव्यं तत्त्वज्ञैस्तद्विशेषतः ।।१७० संयमो द्विविधश्चैव विधेयो गृहमेधिभिः । विनापि प्रतिमारूपं व्रतं यद्वा स्वशक्तितः ॥१७१ तपो द्वादशधा द्वेषा बाह्याभ्यन्तरभेदतः । कृत्स्नमन्यतमं वा तत्कार्य चानतिवीर्यवान् ॥१७२ तदनन्तर अपनी शक्तिके अनुसार व्रती या अवती धर्मात्माओंका आदर सत्कार करना चाहिए तथा ब्रह्मचारी त्यागियोंका आदर सत्कार विशेष रीतिसे करना चाहिए ॥१६५।। जो स्त्रियाँ व्रत पालन करती हैं, ब्रह्मचारिणी हैं अथवा क्षुल्लिका हैं उनका आदर सत्कार करना भी जैन शास्त्रोंमें निषिद्ध नहीं बतलाया है। ऐसी स्त्रियोंका आदर सत्कार भी इस प्रकार करना चाहिए जिससे लौकिक दृष्टिमें कोई किसी प्रकारका विरोध न आवे ॥१६६।। भगवान् अरहन्तदेवकी प्रतिमा या जिनालय वनवाने में भी सावधानी रखनी चाहिए। जिन प्रतिमा या जिनालय इस अच्छी रीतिसे बनवाना चाहिए जिससे कि थोड़ेसे भी पापोंसे दूषित न होने पावें ॥१६७।। बुद्धिमान् गृहस्थोंको सिद्ध परमेष्ठीके यंत्र बनवाने चाहिए तथा अनेक शुभ लक्षणोंसे सुशोभित ऐसी अरहन्त भगवान्की प्रतिमाएं बनवानी चाहिए। उन सिद्ध यंत्र और जिन प्रतिमाओंको जिनालयमें स्थापन कर सबसे पहले उनकी प्रतिष्ठा करानी चाहिए ॥१६८॥ श्रावकोंको तीर्थ यात्रा, संघयात्रा आदि करनेके लिए भी अपने मनको सदा उत्साहित रखना चाहिए। परन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए कि उन तीर्थ यात्रा आदि करने में अपने संयममें किसी प्रकारको बाधा या विराधना न चाहिए ।।१६९॥ प्रतिदिन होनेवाली पूजा वन्दना या अभिषेक आदिमें तथा किसी निमित्तसे होने वाले अभिषेक पूजा वन्दना आदिमें या किसी जिन प्रतिमा या जिनालयके महोत्सव में पूजा प्रतिष्ठा रथोत्सव आदि पुण्य बढ़ाने वाले प्रभावनाके कार्यों में श्रावकोंको कभी शिथिल नहीं होना चाहिए । तथा जो तत्त्वोंके जानकार विद्वान् श्रावक हैं उनको विशेष रीतिसे ऐसे कार्यों में उत्साह पूर्वक भाग लेना चाहिए। विद्वान् श्रावकोंको तो ऐसे पुण्यवर्द्धक कार्यों में कभी भी शिथिलता नहीं करनी चाहिए ॥१७०॥ इसी प्रकार गृहस्थ श्रावकोंको इन्द्रिय संयम और प्राण संयम दोनों प्रकारके संयमोंका पालन करना चाहिए अथवा जिन्होंने प्रतिमा रूपसे व्रत धारण नहीं किये हैं ऐसे पाक्षिक श्रावकोंको अपनी शक्तिके अनुसार अहिंसादिक अणुव्रतोंका पालन करना चाहिए ॥१७१।। इसी प्रकार तपके दो भेद हैं-बाह्यतप और अन्तरंग तप। बाह्यतपके अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश ये छह भेद हैं तथा अन्तरंग तपके प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह भेद हैं । इस प्रकार बारह प्रकारका तप भी अपनी शक्तिके अनुसार गृहस्थोंको पालन करना चाहिए । जो गृहस्थ तपश्चरण पालन करनेकी अधिक शक्ति नहीं रखते उन्हें भी एक दो चार आदि जितने बन सकें उतने तपश्चरण पालन करने चाहिए ॥१७२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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