SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाटीसंहिता एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति नामतः । किं पुनः पाक्षिको गूढो नैष्ठिकः साधकोऽथ वा ॥१५६ मद्यमांसमधुत्यागी यथोदुम्बरपञ्चकम् । नामतः श्रावकः ख्यातो नान्यथापि तथा गही ॥१५७ यथाशक्ति विधातव्यं गृहस्थैव्यंसनोज्झनम् । अवश्यं तद्वतस्यैस्तैरिच्छद्भिः श्रेयसी क्रियाम् ॥१५८ त्यजेद दोषांस्तु तत्रोक्तान सूत्रेऽतीचारसंज्ञकान् । अन्यथा मद्यमांसादीन श्रावकः कः समाचरेत्।। १५९ दानं चतुर्विधं देयं पात्रबुद्धयाऽथ श्रद्धया । जघन्यमध्यमोत्कृष्टपात्रेभ्यः श्रावकोत्तमैः ॥१६० कुपात्रायाप्यपात्राय दान देयं यथोचितम् । पात्रबुद्धया निषिद्धं स्यानिषिद्धं न कृपाधिया ॥१६१ शेषेभ्यः क्षुत्पिपासादि पीडितेभ्योऽशुभोदयात् । दीनेभ्योऽभयदानादि दातव्यं करुणार्णवैः ॥१६२ पूजामप्यर्हतां कुर्याद्यद्वा तत्प्रतिमासु च । स्वरव्यञ्जनान् संस्थाप्य सिद्धानप्यर्चयेत्सुधीः ॥१६३ सूर्युपाध्यायसाधूनां पुरस्तात्पादयोः स्तुतिम् । प्राविधायाष्टधा पूजां विदध्यात्स त्रिशुद्धितः ॥१६४ त्याग रूप गुण चाहे तो स्वभावसे हों और चाहे कुलपरम्पराकी परिपाटीके अनुसार चले आ रहे हों, नियम रूपसे या व्रत रूपसे धारण न किये हों तो भी वे गुण ही कहलाते हैं ॥१५५॥ इसका भी अभिप्राय यह है कि इन गुणोंको धारण किये बिना यह मनुष्य नाम मात्रसे भी श्रावक नहीं कहला सकता। फिर भला पाक्षिक श्रावक या गूढ श्रावक या नैष्ठिक श्रावक अथवा साधक श्रावक किस प्रकार कहला सकता है ॥१५६॥ जो मनुष्य मद्य, मांस, मधुका त्यागी है और जिसने पाँचों उदुम्बरोंका त्याग कर दिया है ऐसा गृहस्थ नाम मात्रका श्रावक कहलाता है। जिसने इन मद्य मांसादिकका त्याग नहीं किया है वह कभी श्रावक नहीं कहलाता। ऐसे गृहस्थको केवल गृहस्थ कहते हैं श्रावक नहीं कहते अतएव पाक्षिक श्रावकको अथवा दर्शन प्रतिमाधारी श्रावकको इन मद्य मांसादिकका त्याग अवश्य कर देना चाहिए ॥१५७। इसी प्रकार जो गृहस्थ अपनी कल्याणमय क्रियाओंको करना चाहते हैं, और जिन्होंने ऊपर लिखे मद्य, मांसादिकका त्याग कर दिया है, मूलगुण धारण कर लिये हैं, ऐसे गृहस्थोंको अपनी शक्तिके अनुसार सातों व्यसनोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिए ॥१५८॥ सूत्रोंमें या शास्त्रोंमें इन आठों मूलगुणोंके अथवा सातों व्यसनोंके जो दोष बतलाए हैं जिनको अतिचारोंके नामसे कहा गया है उनका भी त्याग अवश्य कर देना चाहिए । अन्यथा ऐसा कौन श्रावक है जो मद्य, मांसादिकको साक्षात् सेवन करे ॥१५९।। इसी प्रकार उत्तम श्रावकोंको जघन्य पात्र या मध्यम पात्र अथवा उत्तम पात्रोंके लिए पात्र बुद्धिसे अथवा श्रद्धापूर्वक आहार दान, औषध दान, उपकरण दान और वसतिका दान या अभय दान यह चारों प्रकारका दान अवश्य देना चाहिए ।।१६०। इसी प्रकार कुपात्रोंके लिए तथा अपात्रोंके लिए भी उनकी योग्यतानुसार उचित दान देना चाहिए। शास्त्रोंमें इन अपात्र या कुपात्रोंके लिए दान देनेका निषेध पात्र बुद्धिसे किया है । करुणा बुद्धिसे दान देनेका निषेध नहीं किया है ॥१६॥ इन पात्र कुपात्र अपात्रोंके सिवाय और भी जो जीव अपने अशुभ कर्मके उदयसे भूख या प्यास आदिसे पीड़ित हों या कोई दीन दुःखी हों उनके लिए भी करुणासागर श्रावकोंको अभयदान आदि योग्यतानुसार उचित दान देना चाहिए ॥१६२॥ इसी प्रकार बुद्धिमान् श्रावकोंको भगवान् अरहन्तदेवकी पूजा करनी चाहिए अथवा भगवान् अरहन्तदेवकी प्रतिमामें भगवान्की पूजा करनी चाहिए तथा स्वर और व्यंजनोंको स्थापन कर सिद्ध यन्त्र बनाकर सिद्ध भगवान्की पूजा करनी चाहिए ॥१६३।। इसी प्रकार मन, वचन, कायकी शुद्धतापूर्वक आचार्य उपाध्याय साधुओंकी जलचन्दनादिक आठों द्रव्योंसे पूजा करनी चाहिए और फिर उनके समीप बैठकर उनके चरण कमलोंकी स्तुति करनी चाहिए ॥१६४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy