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________________ श्रावकाचार-संग्रह अथ च पाक्षिको यद्वा दर्शनप्रतिमान्वितः । प्रकृतं न परं कुर्यात्कुर्याद्वा वक्ष्यमाणकम् ॥१४८ प्रामाणिकः क्रमोऽप्येष ज्ञातव्यो व्रतसञ्चये। भावना चागृहीतस्य व्रतस्यापि न दूषिका ॥१४९ भावयेद् भावनां नूनमुपर्युपरि सर्वतः । यावनिर्वाणसम्प्राप्तौ पुंसोऽवस्थान्तरं भवेत् ॥१५० उक्तं चजं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्कइ तहेव सद्दहणं । सद्दहणमाणो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं १९ यथात्र पाक्षिकः कश्चिदर्शनप्रतिमोऽथवा । उपर्युपरिशुद्धयर्थं यद्यत्कुर्यात्तदुच्यते ॥१५१ सर्वतो विरतिस्तेषां हिंसादीनां व्रतं महत् । नैतत्सागारिभिः कतुं शक्यते लिङ्गमहताम् ॥१५२ मूलोत्तरगुणाः सन्ति देशतो वेश्मतिनाम् । तथानगारिणां न स्युः सर्वतः स्युः परेऽथ ते ॥१५३ तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् । क्वचिदवतिनां यस्मात्सर्वसाधारणा इमे ॥१५४ निसर्गाद्वा कुलाम्नायावायातास्ते गुणाः स्फुटम् । तद्विनापि व्रतं यावत्सम्यक्त्वं च गुणोऽङ्गिनाम् ॥१५५ जो पाक्षिक श्रावक होता है अथवा दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक होता है वह कुलपरम्परा से चली आयी परिपाटीका पालन नहीं करता, किन्तु नीचे लिखे अनुसार व्रतोंका पालन करता है ।।१४८॥ व्रतोंके धारण करने में यही क्रम प्रामाणिक समझना चाहिए तथा जो आगेके व्रत धारण नहीं किये हैं उनको धारण करनेके लिए भावना रखनेमें कोई दोष नहीं है ।।१४९।। जब तक इस जीवकी अन्तिम शुद्ध अवस्था प्राप्त न हो जाय अर्थात् मोक्ष प्राप्त न हो जाय तब तक ज्यों ज्यों ऊँचे व्रत धारण करता जाय, त्यों त्यों आगेके व्रत धारण करनेके लिए सर्वत्र भावनाएं रखनी चाहिए॥१५०॥ कहा भी है जो कर सकता है वह कर लेना चाहिए और जो नहीं कर सकता उसका श्रद्धान करना चाहिए क्योंकि श्रद्धान करनेवाला जीव अजर अमर ऐसे मोक्षस्थानको प्राप्त होता है ॥१९॥ अब आगे पाक्षिक श्रावक अथवा दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक आगे आगे अपनी आत्माको शुद्ध करनेके लिए क्या क्या करता है, कौन कौनसे व्रत पालन करता है इसी बातको दिखलाते हैं ॥१५१॥ इस संसारमें हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये पाँच पाप कहलाते हैं । इन पांचों पापोंका पूर्ण रीतिसे मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदनासे त्याग कर देना महाव्रत कहलाते हैं। यह महाव्रत धारण करना भगवान् अरहंतदेवका चिह्न है। जिनलिङ्ग अथवा निर्ग्रन्थ लिङ्ग कहलाता है। इस अवस्थाको इन महाव्रतोंको गृहस्थ लोग धारण नहीं कर सकते ॥१५२॥ किन्तु गृहस्थ लोग एकदेश व्रतोंको धारण करते हैं। इन्हीं एकदेश व्रतोंको मूलगुण और उत्तरगुण कहते हैं । ये एकदेश व्रत रूप मूलगुण अथवा उत्तरगुण मुनियोंके नहीं होते अपितु गृहस्थोंके ही होते हैं। मुनियोंके तो हिंसादि पाँचों पापोंके पूर्ण रूपसे त्याग करने रूप महाव्रत होते हैं। अथवा यों कहना चाहिए कि मुनियोंके मूलगुण और उत्तरगुण इन गृहस्थोंके मूलगुण या उत्तरगुणोंसे सर्वथा भिन्न हैं ।।१५३।। इनमेंसे आठ मूलगुण व्रत धारण करनेबाले गृहस्थोंके होते हैं अथवा अव्रती सम्यग्दृष्टियोंके भी होते हैं क्योंकि ये सर्वसाधारण व्रत होते हैं, प्रत्येक मनुष्य के पालन करने योग्य हैं, अतएव व्रती अव्रती दोनों प्रकारके श्रावकोंके होते हैं ॥१५४।। इस जीवके जब तक सम्यग्दर्शन रूप गुण रहता है तबतक मद्य, मांस, मधुका त्याग तथा पांचों उदुम्बरोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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