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________________ लाटीसंहिता ततो विविक्षितं साधु सामान्यात्सा कुलक्रिया। नियमेन सनाथा चेद्दर्शनप्रतिमात्मिका ॥१४१ किञ्च मूलगुणादीनामादानेऽथापि वर्जने । समस्ते प्रतिमास्त्याद्या व्यस्ते सति कुल क्रिया ॥१४२ यथा चैकस्य कस्यापि व्यसनस्योज्झने कृते । दर्शनप्रतिमा न स्यात्स्याद्वा साध्वी कुलक्रिया ॥१४३ यदा मूलगुणादानं द्यूतादिव्यसनोज्झनम् । दर्शनं सर्वतश्चैतत्त्रयं स्यात्प्रतिमादिमा ॥१४४ दर्शनप्रतिमायास्तु क्रियाया व्रतरूपतः । तस्याः कुलक्रियायाश्चाविशेषोऽप्यस्ति लेशतः ॥१४५ प्रमादोद्रेकतोऽवश्यं सदोषाः स्यात्कुल क्रियाः । निर्दोषाः स्वल्पदोषा वा दर्शनप्रतिमाक्रियाः ॥१४६ यथा कश्चित्कुलाचारी द्यूतातिव्यसनोज्झनम् । कुर्याद्वा न यथेच्छायां कुर्यादेव हगात्मकः ॥१४७ उक्त शंका सर्वथा अनुचित है। दर्शनप्रतिमा पाँचवें गुणस्थानमें ही होती है। यही सिद्धान्त शास्त्रानुकूल है और अनादिकालसे चला आ रहा है ॥१३९-१४०॥ अतएव सामान्यरीतिसे विना किसी नियमके केवल कुलपरम्परासे चली आयी परिपाटीके अनुसार जो मद्य, मांस, मधु, पाँच उदुम्बर सातों व्यसनोंका सेवन न करना है उसको कुलक्रिया या कुलाम्नाय कहते हैं और यदि उनके सेवन न करनेका नियम ले लिया जाय, नियमपूर्वक मद्यादिकका त्याग कर दिया जाय तो ऐसे सम्यग्दृष्टि के वह दर्शनप्रतिमा कहलाती है । यह जो हमने कहा है सो बहुत ही ठीक शास्त्रानुकूल कहा है ॥१४१।। उसमें भी इतना विशेष और समझ लेना चाहिए यदि कोई सम्यग्दृष्टि समस्त आठों मूलगुणोंको धारण करे और समस्त सातों व्यसनोंका त्याग करे तब तो उसके पहिली दर्शनप्रतिमा होती है यदि वह अलग-अलग किसी एक दो व्यसनोंका त्याग करे अथवा मूलगुणोंमेंसे किसी एक दो चार मूलगुणोंको धारण करे तो उसकी पहिली दर्शनप्रतिमा नहीं कहलाती किन्तु कुलक्रिया कहलाती है ॥१४२।। जैसे किसी सम्यग्दृष्टि मनुष्यने किसी एक व्यसनका त्याग कर दिया तो उसके दर्शनप्रतिमा नहीं कहलायेगी, किन्तु श्रेष्ठ कुलक्रिया कहलावेगी ॥१४३॥ जब उसके पूर्ण सम्यग्दर्शन होगा, आठों मूलगुण होंगे और सातों व्यसनोंका त्याग होगा ये तीनों नियमपूर्वक पूर्ण रीतिसे होंगे, तभी उसके पहली दर्शनप्रतिमा होगी अन्यथा नहीं ॥१४४॥ दर्शनप्रतिमामें होनेवाली व्रतरूप क्रियाओंमें (नियमपूर्वक धारण की हुई क्रियाओंमें) तथा विना नियमके होनेवाली कुलक्रियाओंकी क्रियाओंमें यद्यपि कुछ अंशोंमें अविशेषता है, एकसापन है तथापि यदि यथार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो उसमें बहुत कुछ अन्तर है ॥१४५।। कुलक्रियामें प्रमादकी तीव्रता होती है क्योंकि प्रमाद ही उसे नियमपूर्वक त्याग नहीं करने देता, अतएव प्रमादकी तीव्रता होनेके कारण कुलक्रियायें सदोष समझी जाती हैं, उनमें समय-समयपर अनेक प्रकारके अनेक दोष लगते रहते हैं तथा दर्शनप्रतिमा धारण करनेवालेकी जो क्रियायें हैं उनमें प्रमादकी अत्यन्त मन्दता है क्योंकि प्रमादोंकी मन्दतासे ही वह नियमपूर्वक उनका त्याग करता है इसीलिए उसकी क्रियायें निर्दोष हैं अथवा मन्दरूपसे प्रमादकी सत्ता रहनेके कारण क्वचित् कदाचित् कुछ थोड़ा-सा दोष लग भी जाता है इसलिए उसे थोड़ेसे दोषवाली क्रियाएँ कहते हैं ।।१४६॥ जैसे कुलक्रियाको पालन करनेवाला कोई पुरुष जुआ खेलने, चोरी करने आदि व्यसनोंका त्याग कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता है। त्याग करना और न करना उसकी इच्छापर निर्भर है उसकी इच्छा हो तो त्याग कर दे और यदि उसकी इच्छा न हो तो न करे। उसके नियमपूर्वक त्याग होना ही चाहिए यह बात नहीं है किन्तु दर्शनप्रतिमावालेके नियमपूर्वक इनका त्याग होता है क्योंकि त्याग किये विना दर्शनप्रतिमा हो ही नहीं सकती। बस यही इन दोनोंमें अन्तर है ।।१४७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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