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________________ श्रावकाचार-संग्रह सम्यक्त्वेन विहीनोऽपि नियमेनाप्यथोज्झितः । योऽपि कुल क्रियासक्तः स्वर्गादिपदभाग्भवेत् ॥१३३ अथ क्रियां च तामेव कुलाचारोचितां पराम् । व्रतरूपेण गृह्णाति तदा दर्शनिको मतः ॥१३४ दर्शनप्रतिमा चास्य गुणस्थानं च पञ्चमम् । संयतासंयताख्यश्च संयमोऽस्य जिनागमात् ॥१३५ हगायेकावशान्तानां प्रतिमानामनादितः । पञ्चमेन गुणेनामा व्याप्तिः साधीयसी स्मृतेः ॥१३६ ननु या प्रतिमा प्रोक्ता दर्शनाख्या तदादिमा। जैनानां सास्ति सर्वेषामर्थादवतिनामपि ॥१३७ मैवं सति तथा तुयंगुणस्थानस्य शून्यता । नूनं दृग्प्रतिमा यस्माद्गुणे पञ्चमके मता ॥१३८ नोमं दृग्प्रतिमामात्रमस्तु तुर्यगुणे नृणाम् । वतादिप्रतिमाः शेषाः सन्तु पञ्चमके गुणे ॥१३९ मैवं सति नियमावाववतित्वं कुतोऽर्थतः । व्रतादिप्रतिमासूच्चैरवतित्वानुषङ्गतः ॥१४० ॥१३२॥ तथा जो पुरुष सम्यग्दर्शनसे भी रहित होता है और नियमपूर्वक भावपूर्वक मद्य, मांस, मधु, उदुम्बर, व्यसन आदिका त्याग भी नहीं करता, केवल अपनी कुलक्रियाका पालन करता है कुलपरम्पराके अनुसार, मद्य, मांस, मधु, पाँचों उदुम्बर और व्यसनोंका सेवन नहीं करता वह मनुष्य भी स्वर्गादिक सुखोंको प्राप्त करता है ॥१३३॥ यदि वही मनुष्य सम्यग्दर्शनके साथ-साथ कुलपरम्परासे चली आयी परिपाटीके अनुसार मद्य, मांस आदिके न सेवन करनेरूप क्रियाओंको व्रतरूपसे धारण कर लेता है तब वह दर्शनप्रतिमाको धारण करनेवाला दार्शनिक कहलाता है ॥१३४॥ इस प्रकार सम्यग्दर्शनके साथ नियमपूर्वक आठों मूलगुणोंको धारण करनेवाले तथा सातों व्यसनोंका त्याग करनेवाले पुरुषके पहली दर्शन प्रतिमा कहलाती है। उसका गुणस्थान संयतासंयत नामका पांचवां गुणस्थान कहलाता है और वह भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंके अनुसार अपने संयमका पालन करता है ॥१३५।। यह निश्चय है कि सम्यग्दर्शनको आदि लेकरजो ग्यारह प्रतिमायें हैं उनकी निर्दोष व्याप्ति अनादिकालसे पाँचवें गुणस्थानके साथ ही चली आ रही है ।।१३६।। यहाँपर शंकाकार कहता है कि यह जो पहिली दर्शनप्रतिमा कही है वह तो समस्त जैनियोंके होती है और इस हिसाबसे अव्रत सम्यग्दृष्टिके भी अवश्य होनी चाहिए ॥१३७।। समाधान-परन्तु यह मानना ठीक नहीं है क्योंकि यदि ऐसा मान लिया जायगा अर्थात् अव्रत सम्यग्दृष्टियोंके भी पहिली प्रतिमा मान ली जायगी तो फिर चौथे गुणस्थानका सर्वथा अभाव मानना पड़ेगा क्योंकि यह नियम है कि दर्शनप्रतिमा पाँचवें गुणस्थानमें ही होती है। भावार्थयदि अविरत सम्यग्दृष्टिके ही दर्शनप्रतिमा मान ली जाय तो फिर उसके पाँचवाँ गुणस्थान ही मानना पड़ेगा क्योंकि प्रतिमाएँ सब पांचवें गुणस्थानमें ही होती हैं तथा अविरत सम्यग्दृष्टिके पाँचवाँ गुणस्थान माननेसे फिर चौथा गुणस्थान कोई बन ही नहीं सकेगा इस प्रकार चौथे गुणस्थानका अभाव ही मानना पड़ेगा ।।१३८।। यहाँपर शंकाकार फिर कहता है कि अच्छा भाई, मनुष्योंके होनेवाली दर्शनप्रतिमा तो चौथे गुणस्थानमें ही मान लो और शेष बची हुई व्रतादिक दश प्रतिमाओंको पाँचवें गुणस्थानमें मान लो। ऐसा माननेसे कोई विशेष हानि भी नहीं है परन्तु ग्रन्थकार कहते हैं कि यह शंका करना भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि नियमपूर्वक मद्य मांसादिकका त्याग कर लेनेपर भी फिर अवतीपना किस कारणसे माना जायगा। यदि नियमपूर्वक मद्य, मांसादिकके त्याग करने रूप व्रतको धारण कर लेनेपर भी अव्रत अवस्था मानी जायगी तो फिर व्रत आदि बाकीकी दश प्रतिमाओंको धारण कर लेनेपर भी अव्रत अवस्था मान लेनी पड़ेगी। तथा ऐसा माननेसे फिर पांचवें गुणस्थानका अभाव या लोप मानना पड़ेगा इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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