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श्रावकाचार-संग्रह धर्मश्रवणमेकेषां यद्वा देवद्धिदर्शनम् । जातिस्मरणमेकेषां वेदनाभिभवस्तथा ॥२४ एवमित्यादिबहवो विद्यन्ते बाह्यहेतवः । सम्यक्त्वप्रथमोत्पत्तावन्तरङ्गानतिक्रमात् ॥२५ अस्यैतलक्षणं नूनमस्ति सम्यग्हगात्मनः । जिनोक्तं श्रद्दधात्येव जीवाद्यर्थं यथास्थितम् ॥२६
उक्तं चणो इंदिएसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥१८ ननल्लेखः किमेतावानस्ति किं वा परोऽप्यतः । लक्ष्यते येन सदृष्टिलक्षणेनान्वितः पुमान् ॥२७ अपराण्यपि लक्ष्माणि सन्ति सम्यग्दृगात्मनः । सम्यक्त्वेनाविनाभूतैर्यश्च सलक्ष्यते सुदृक् ॥२८ उक्तमाक्षां सुखं ज्ञानमनादेयं दृगात्मनः । नादेयं कर्मसर्वस्वं तद्वदृष्टोपलब्धितः ॥२९ सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम् । गोचरं वावधिस्वान्तपर्ययज्ञानयोर्द्वयोः ॥३० न गोचरं मतिज्ञानश्रुतविज्ञानयोर्मनाक् । नापि देशावधेस्तत्र विषयोऽनुपलब्धितः ॥३१ अस्त्यात्मनो गुणः कश्चित्सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् । तदृग्मोहोदयान्मिथ्यास्वादरूपमनादितः ३२ देवात्कालादिसंलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे । भव्यभावविपाकाद्वा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥३३
हो जाता है ॥२३॥ सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होने में किसीको धर्मश्रवण कारण पड़ता है, किन्हींको बड़े-बड़े देवोंकी ऋद्धियोंका देखना ही कारण पड़ता है, किन्हींको जातिस्मरण (पहले भवका स्मरण हो आना) ही कारण पड़ता है और किन्हींको नरकादिककी तीव्र वेदनाके कारण आत्माको तीव्र दुःख होना या आत्माका तिरस्कार होना ही सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होने में कारण पड़ता है ॥२४॥ प्रथम सम्यग्दर्शन उत्पन्न होते समय मिथ्यात्व आदि सातों प्रकृतियोंके अभावरूप अन्तरंग कारणोंके होने पर ऊपर लिखे बाह्य कारण भी निमित्तकारण होते हैं तथा इनके सिवाय और भी ऐसे ही अनेक कारण निमित्तकारण पड़ जाते हैं ॥२५॥ इस प्रकारका सम्यग्दर्शन जिसके उत्पन्न हो गया है ऐसे इस सम्यग्दृष्टीका लक्षण निश्चयसे यही है कि वह भगवान् सर्वज्ञदेवके द्वारा कहे हुए जीवादिक पदाथोंके यथार्थ स्वरूपका अवश्य श्रद्धान करता है॥६॥
___ कहा भी है जो न तो इन्द्रियोंसे विरक्त होता है और न त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्याग करता है जो केवल भगवान् अरहन्त देवके कहे हुए पदार्थोंका श्रद्धान करता है उसको अविरत सम्यग्दृष्टि कहते हैं ॥१८॥ शंका-क्या सम्यग्दृष्टिके विषयमें इतना ही कथन है या और भी है ? क्या ऐसा कोई लक्षण है जिस लक्षणसे युक्त यह जीव सम्यग्दृष्टि कहलाता है ? ॥२७॥ समाधान-सम्यग्दृष्टि आत्माके और भी लक्षण हैं, सम्यक्त्वके अविनाभावी जिन लक्षणोंके द्वारा सम्यग्दृष्टि जीव लक्षित किया जाता है ॥२८॥ यथा पहले इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञानका कथन कर आये हैं जो सम्यग्दृष्टि आत्माके लिए उपादेय नहीं माना गया है। इसी प्रकार उसके लिए सम्पूर्ण कर्म भी उपादेय नहीं माना गया है। और यह बात प्रत्यक्षसे भी दिखाई देती है कि सम्यग्दृष्टिको इन सबमें हेय बुद्धि हो जाती है ।।२९।। वास्तवमें सम्यग्दर्शन अत्यन्त सूक्ष्म है जो या तो केवलज्ञानका विषय है या अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका विषय है ॥३०।। यह मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनोंका किञ्चित् भी विषय नहीं है। साथ ही यह देशावधिज्ञानका भी विषय नहीं है, क्योंकि इन ज्ञानोंके द्वारा सम्यग्दर्शनकी उपलब्धि नहीं होती ॥३१॥ आत्माका निर्विकल्प सम्यक्त्व नामका एक गुण है। जो दर्शन मोहनीयके उदयसे अनादिकालसे मिथ्या स्वादरूप हो रहा है ।।३२।। दैववश कालादिलब्धियोंके प्राप्त होने पर जब संसार समुद्र निकट रह जाता है और भव्य भावका परिपाक
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