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लाटीसंहिता प्रयत्नमन्तरेणापि दृग्मोहोपशमो भवेत् । अन्तर्मुहूर्तमानं च गुणवेण्यनतिक्रमात् ॥३४ अस्त्युपशमसम्यक्त्वं दृग्मोहोपशमात् यथा । पुंसोऽवस्थान्तराकारं नाकारं चिद्विकल्पकैः ॥३५ सामान्याद्वा विशेषाद्वा सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् । सत्तारूपं पारिणामि प्रदेशेषुः परं चितः ॥३६ तत्रोल्लेखस्समोनाशे तमोरेरिव रश्मिभिः । दिशः प्रसादमासेदुः सर्वतो विमलाशयाः ॥३७ दृग्मोहोपशमे सम्यग्दृष्टरुल्लेख एष वै। शुद्धत्वं सर्वदेशेषु त्रिधा बन्धापहारि यत् ॥३८ यथा वा मद्यधतूरपाकस्यास्तङ्गतस्य वै । उल्लेखो मूच्छितो जन्तुरुल्लाघः स्यादमूच्छितः ॥३९ दृग्मोहस्योदयान्मू वैचित्यं वा तथा भ्रमः । प्रशान्ते तस्य मूर्छाया नाशाज्जीवो निरामयः ॥४० होता है तब यह जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होता है ॥३३॥ उक्त कारण सामग्रीके मिलते ही इस जीवके विना किसी प्रयत्नके एक अन्तर्मुहूर्तके लिए दर्शन मोहनीयके उपशम होता है और तब गुण श्रेणी निर्जरा भी होती है ॥३४॥ दर्शन मोहनीयके उपशमसे जो उपशम सम्यक्त्व होता है वह जीवकी मिथ्यात्व अवस्थासे सर्वथा भिन्न दूसरी अवस्थारूप है जिसका चैतन्यके विकल्पमें आकार नहीं आता ॥३५॥ सम्यग्दर्शन सामान्य और विशेष दोनों प्रकारसे निर्विकल्प है, सत्त्वरूप है और केवल आत्माके प्रदेशोंमें परिणमन करनेवाला है ॥३६।। जैसे सूर्यको किरणोंके द्वारा अन्धकारका नाश हो जानेपर दिशाएँ सब तरफसे निर्मल होकर प्रसन्नताको प्राप्त होती है वैसे ही दर्शन मोहनीयका उपशम होने पर सम्यग्दृष्टिके भी वही दशा होती है। इसके जो सम्यग्दर्शन होता है वह सब प्रदेशोंमें शुद्ध होता है और तीन प्रकारके बन्धको दूर करनेवाला होता है ।।३७-३८॥ अथवा जिस प्रकार मदिरा और धतूरेके परिपाक होने पर यह जीव मूर्छित होता है और इनकी नशा दूर हो जानेपर यह जीव मूर्छारहित होकर प्रसन्न हो जाता है ॥३९|| उसी प्रकार दर्शन मोहनीयके उदयसे इस जीवके मूर्छा वैचित्य या भ्रम देखा जाता है और दर्शन मोहनीय कर्मके उपशान्त हो जानेपर मूर्छाका नाश हो जानेसे यह जीव निरामय देखा जाता है ॥४०॥ विशेषार्थयहाँ सम्यक्त्व किस ज्ञानका विषय है इस बातका निर्देश करके सम्यक्त्व आत्माका गुण है यह बतलाया गया है और साथ ही उसकी उत्पत्तिकी सामग्री पर प्रकाश डाला गया है। सम्यक्त्व अमूर्त आत्माका गुण है इसलिए इसका प्रत्यक्ष ज्ञान केवलज्ञानके सिवाय अन्य ज्ञानों द्वारा सम्भव नहीं है। फिर भी यहाँ वह अवधिज्ञान और मन.पर्यय ज्ञानका भी विषय बतलाया गया है सो इसका कारण भिन्न है। बात यह है कि परमावधि और सर्वावधिका विषय कर्म तो है ही, इसलिए इन ज्ञानोंके द्वारा कर्मके उपशम आदिको जानकर अवधिज्ञानी यह जान लेता है कि इस आत्मामें सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो गया है । इसी प्रकार कर्मके निमित्तसे होने वाली मनकी पर्याय मनःपर्ययज्ञानका विषय होनेसे मनःपर्ययज्ञान भी सम्यक्त्वको जान लेता है । पर शेष ज्ञान सम्यक्त्वको नहीं जान सकते, क्योंकि वे स्थूल मूर्त पर्यायोंको ही जानते हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व किस ज्ञानका विषय है यह तो स्पष्ट हो जाता है। अब सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी सामग्रीके सम्बन्धमें विचार करना है। बात यह है कि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति अधिकसे अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके शेष रहने पर ही होती है। उसमें भी इस कालके भीतर जब सम्यक्त्वको उत्पत्तिकी योग्यता होती है तभी यह सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके विषयमें ऐसा नियम है कि सर्वप्रथम उपशम सम्यक्त्व होता है जो अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-पूर्वक होता है । उसमें भी मिथ्यात्वका अन्तरकरण उपशम होता है और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अनुदयरूप उपशम होता है। इस पम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्त काल है । इसके होने पर जीवकी ऐसी अवस्था प्रकट होती है जिससे उसका
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