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________________ श्रावकाचार-संग्रह उक्तं चनास्ति चाहत्परो देवो धर्मो नास्ति दयापरः । तपःपरं च नैर्ग्रन्थ्यमेतत्सम्यक्त्वलक्षणम् । १४ हेतुतोऽपि द्विधोद्दिष्टं सम्यक्त्वं लक्षणाद् यथा । तन्निसर्गादधिगमादित्युक्तं पूर्वसूरिभिः ॥१४ निसर्गस्तु स्वभावोक्तिः सोपायोऽधिगमो मतः । अर्थोऽयं शब्दमात्रत्वादर्थतः सूच्यतेऽधुना।।१५ नाम्ना मिथ्यात्वकमकमस्ति सिद्धमनादितः । सम्यक्त्वोत्पत्तिवेलायां द्रव्यतस्तत्त्रिधा भवेत् ॥१६ अघोऽपूर्वानिवृत्त्याख्यं प्रसिद्ध करणत्रयम् । करणान्तर्मुहूर्तस्य मध्ये धाऽस्ति नान्यदा ॥१७ उक्तं चजन्तेण कोद्दवं वा पढमुवसमसम्मभावजंतेण । मिच्छादव्वं तु तिहा असंखगुणहीण दव्वकमा ॥१५ यही लक्षण अन्य शास्त्रोंमें भी कहा है भगवान् अरहन्तदेवके समान अन्य कोई देव नहीं है, दयाके समान और कोई धर्म नहीं है और निर्ग्रन्थ अवस्थाके समान और कोई उत्कृष्ट तप नहीं है अर्थात् तप करनेवाले गुरु निर्ग्रन्थ ही होते हैं ऐसा मानना ही सम्यग्दर्शन है। यही सम्यग्दर्शनका लक्षण है ॥१४॥ यह सम्यग्दर्शन जिस प्रकार अपने लक्षणसे निश्चय और व्यवहाररूप दो प्रकार है उसी प्रकार यह सम्यग्दर्शन अपने उत्पन्न होनेके कारणोंके भेदसे भी दो प्रकार है। उसके उत्पन्न होनेके दो कारण हैं एक निसर्ग और दूसरा अधिगम । जो निसर्गसे उत्पन्न होता है उसको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जो अधिगमसे उत्पन्न होता है उसको अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । ऐसा पहले आचार्योंने निरूपण किया है ॥१४॥ जो सम्यग्दर्शन स्वभावसे उत्पन्न होता है, अपने आप उत्पन्न होता है जो विना किसी उपदेशके उत्पन्न हो जाता है उसको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जो बहिरंग उपदेश आदि उपायोंसे उत्पन्न होता है उसको अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह अर्थ केवल शब्दमात्रसे बतलाया है । जो भेद या जो अर्थ उन शब्दोंसे निकलता है वह बतलाया है। वास्तवमें उन दोनोंमें क्या भेद है तथा निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शन किसको कहते हैं यह बात अब आगे बतलाते हैं ॥१५॥ सम्यदर्शनरूप आत्माके गुणका घात करनेवाला एक मिथ्यात्वकर्म है। वह मिथ्यात्वकर्म अनादिकालसे एक ही प्रकारका चला आ रहा है । जब इस जीवको मिथ्यात्वकर्मके उपशम होनेसे प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है तब वही एक प्रकारका मिथ्यात्वकर्म अलग-अलग द्रव्यरूप तीन प्रकारका हो जाता है ॥१६।। अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन करण प्रसिद्ध हैं। इन तीनों करणोंका समय अन्तर्मुहूर्त है। यह जोव जिस अन्तमुहूर्तमें इन तीनों करणोंको करता है उसी अन्तमुहूर्तमें उस मिथ्यात्वकर्मके तीन भेद कर डालता है। ये भेद किसी दूसरे समयमें नहीं होते, करणत्रय करते समय ही होते हैं ॥१७॥ कहा भी है जिस प्रकार कोदों नामके धान्योंको चक्कीमें पीसनेपर उसके तीन भाग हो जाते हैं-चावल अलग हो जाते हैं, भूसी अलग हो जाती है और कण अलग हो जाते हैं उसी प्रकार उपशम सम्यग्दर्शनरूपी चक्कीके द्वारा पोसे जानेपर मिथ्यात्वकर्म भो तीन भागोंमें बँट जाता है। पहले भागको मिथ्यात्वकर्म कहते हैं यह सबसे अधिक बलवान् और अधिक होता है। दूसरा सम्यमिथ्यात्व है यह उससे कम बलवान् है और इसकी द्रव्य संख्या भी उससे कम होती है। तीसरा सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व है। यह दूसरेसे भी कम बलवान् और द्रव्यमें कम होता है ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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