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लाटीसंहिता
तद्विशेषविधिस्तावनिश्चयाव्यवहारतः । सम्यक्त्वं स्याद् द्विधा तत्र निश्चयश्चकघा यथा ॥१० शुद्धस्यानुभवः साक्षाज्जीवस्योपाधिवजितः । सम्यक्त्वं निश्चयान्ननमर्थादेकविधं हि तत् ॥११ उक्तं च
दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः ।
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥१२ व्यवहाराच्च सम्यक्त्वं ज्ञातव्यं लक्षणाद्यथा। जीवादि सप्ततत्त्वानां श्रद्धानं गाढमव्ययम् ॥१२
। उक्तं चजीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं । रायादीपरिहरणं चरणं एसो हु मोक्खपहो ॥१३ यद्वा व्यवहृते वाच्यं स्थूलं सम्यक्त्वलक्षणम् । आप्ताप्तागमधर्मादिश्रद्धानं दूषणोज्झितम् ॥१३ उन कारणोंके दो भेद होनेसे सम्यग्दर्शनके भी दो भेद हो जाते हैं ॥९॥ उसके दो भेद निश्चय और व्यवहारसे होते हैं। इसीलिये सम्यग्दर्शन भी निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शनके भेदसे दो प्रकारका कहलाता है। उसमें से निश्चय सम्यग्दर्शन एक ही प्रकार है । निश्चय सम्यग्दर्शनके और भेद प्रभेद नहीं हैं ॥१०॥ जो विना किसी उपाधिके, विना किसी उपचारके शुद्ध जीवका साक्षात् अनुभव होता है वही निश्चयनयसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है। उस निश्चय सम्यग्दर्शनमें कोई उपाधि या उपचार नहीं हैं इसलिये ही वह सम्यग्दर्शन एक ही प्रकारका होता है ॥११॥ यही प्रकारान्तरसे दूसरे शास्त्रोंमें इसका लक्षण कहा है-शुद्ध आत्माका निश्चय होना, अनुभव होना, निश्चय सम्यग्दर्शन है। शुद्ध आत्माका ज्ञान होना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और शुद्ध आत्मामें लीन होना निश्चय सम्यक्चारित्र है। इसलिये इन निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रसे कैसे बन्ध हो सकता है ॥१२।। आगे व्यवहार सम्यग्दर्शनका लक्षण बतलाते हैं-जीव अजीव आदि सातों तत्त्वोंका नाश न होनेवाला चल मलिनरहित गाढ़ श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है ।।१२।। यही दूसरे शास्त्रोंमें कहा है। जीवादिक सातों पदार्थोंका यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उन्हीं जीवादिक सातों पदार्थोंको जानना सम्यग्ज्ञान है और राग-द्वेषको दूर करना सम्यक्चारित्र है। ये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्षके मार्ग हैं या मोक्षके कारण हैं ॥१३॥
___ अथवा व्यवहारके लिए स्थूल सम्यग्दर्शनका लक्षण इस प्रकार भी आचार्योंने बतलाया है कि आप्त, आप्तका कहा हुआ आगम और आप्तका कहा हुआ दयामय धर्म इन तीनोंका सब प्रकारके .दोषोंसे रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। भावार्थ-इन दोनों लक्षणों में केवल ऊपरसे देखनेकी ही भिन्नता है, वास्तवमें कोई भेद नहीं है क्योंकि आगमके श्रद्धानमें आगममें कहे हुए सातों तत्त्वोंका श्रद्धान आ जाता है अथवा तत्त्वोंके श्रद्धानमें देवशास्त्र गुरुका श्रद्धान आ जाता है क्योंकि जीव तत्त्वके श्रद्धानमें जो चार घातिया रहित शुद्धजीवका स्वरूप है वही आप्त है, उसी आप्तका कहा हुआ सातों तत्त्वोंको वर्णन करनेवाला आगम है और संवर या निर्जराके स्वरूपमें दयामय अहिंसामय धर्मका स्वरूप वर्णन करना धर्म है। इस प्रकार विचार करनेसे व्यवहार सम्यग्दर्शनके दोनों ही लक्षण पृथक्-पृथक् नहीं हैं किन्तु दोनों ही एक हैं केवल बतलानेका या कथन करनेका प्रकार अलग-अलग है और कुछ भेद नहीं है । ॥१३॥
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