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द्वितीय सर्ग सम्यक्त्वं दुर्लभं लोके सम्यक्त्वं मोक्षसाधनम् । ज्ञानचारित्रयोर्बीजं मूलं धर्मतरोरिव ॥१ तदेव सत्पुरुषार्थस्तदेव परमं पदम् । तदेव परमं ज्योतिः तदेव परमं तपः ॥२ तदेवेष्टार्थसंसिद्धिस्तदेवास्ति मनोरथः । अक्षातीतं सुखं तत्स्यात्तत्कल्याणपरम्परा ॥३ विना येनात्र संसारे भ्रमति स्म शरीरभाक् । भ्रमिष्यति तथानन्तं कालं भ्रमति सम्प्रति ॥४ अपि येन विना ज्ञानमज्ञानं स्यात्तदज्ञवत् । चारिशं स्यात्कुचारिशं तपो बालतपः स्मृतम् ॥५ अत्रातिविस्तरेणालं कर्म यावच्छुभात्मकम् । सर्व तत्पुरतः सम्यक् सर्वे मिथ्या तदत्ययात् ॥६ तच्च तत्वार्थश्रद्धानं सूत्रो सम्यक्त्वलक्षणे । प्रामाणिकं तदेव स्याक्छतकेवलिभिर्मतम् ॥७ तत्त्वं जीवास्तिकायाद्यास्तत्स्वरूपोऽर्थसंज्ञकः । श्रद्धानं चानुभूतिः स्यात्तेषामेवेति निश्चयात् ॥८ सामान्यादेकमेवैतत्तद्विशेषविद्विधा । परोपचारसापेक्षाद्धेतो तबलादपि ॥९
इस संसारमें सम्यग्दर्शन ही दुर्लभ है, सम्यग्दर्शन ही ज्ञान और चारित्रका बीज है अर्थात् ज्ञान चारित्रको उत्पन्न करनेवाला है और सम्यग्दर्शन ही धर्मरूपी वृक्षके लिये जड़के समान है ॥१॥ यह सम्यग्दर्शन ही सबसे उत्तम पुरुषार्थ है, यह सम्यग्दर्शन ही सबसे उत्तम पद है, यह सम्यग्दर्शन ही उत्कृष्ट ज्योति है और यह सम्यग्दर्शन ही सबसे श्रेष्ठ तप है ॥२॥ यह सम्यग्दर्शन ही इष्ट पदार्थोंकी सिद्धि है, यही परम मनोरथ है, यही केवल आत्मासे उत्पन्न होनेवाला अतीन्द्रिय सुख है और यही सम्यग्दर्शन अनेक कल्याणोंकी परम्परा है ।।३॥ इस सम्यग्दर्शनके ही विना इस घोर संसारमें यह प्राणी अनादिकालसे अबतक भ्रमण कर रहा है और आगे अनन्तकाल तक बराबर परिभ्रमण करेगा ॥४॥ इस सम्यग्दर्शनके विना ही इस जीवका ज्ञान अज्ञानी पुरुषके समान अज्ञान या मिथ्याज्ञान कहलाता है, चारित्र मिथ्याचारित्र कहलाता है और तप बाल तप या अज्ञानतप कहलाता है ।।५।। इस विषयको बहुत बढ़ाकर कहनेसे क्या लाभ है, थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि इस संसारमें जो शुभरूप कर्म हैं, शुभ कार्य हैं, शुभ भाव हैं वे सब सम्यग्दर्शनपूर्वक ही होते हैं और विना सम्यग्दर्शनके वे सब कार्य या भाव मिथ्या होते हैं, विपरीत होते हैं, अशुभ होते हैं ॥६॥ इस सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्त्वार्थसूत्रमें तत्त्वार्थश्रद्धान बतलाया है । इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक पदार्थमें अलग-अलग धर्म रहता है। उसी धर्मसे उस पदार्थका निश्चय किया जाता है। उस धर्मको तत्त्व कहते हैं। अर्थ शब्दका अर्थ निश्चय करना है, जिस पदार्थका निश्चय उसमें रहनेवाले धर्मसे कर लिया है उस पदार्थका स्वरूप कभी विपरीत नहीं हो सकता ऐसे यथार्थ पदार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। यह जो सम्यग्दर्शनका लक्षण बतलाया है वही प्रमाण है और वही श्रुतकेवलियोंने माना है ॥७॥ जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्त्व कहलाते हैं, इनका जो स्वरूप है वही पदार्थ कहलाता है तथा निश्चय नयसे उन पदार्थोंकी अनुभूति होना श्रद्धान कहलाता है । वह यथार्थ पदार्थोंका श्रद्धान या अनुभूति अथवा सम्यग्दर्शन सामान्य रीतिसे एक प्रकार है और विशेष विधिसे वही दो प्रकार है। उसके उत्पन्न होनेके कारण जो कि पर पदार्थोंके उपचारोंकी अपेक्षा रखते हैं दो प्रकारके हैं।
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