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________________ लाटीसंहिता भवेद्वा मरणं मोहादन्यस्त्रीलीनचेतसः । चित्रं किमत्र रोगाणामुद्भवोऽपि भवेद् ध्रुवम् ॥ २१७ यद्वाऽमुह यद् दुःखं यावद्यादृक् च दुःस्सहम् । अन्यस्त्रीव्यसनासक्तः सवं प्राप्नोति निश्चितम् ॥२१८ अस्मदीयमतं चैतद्दोषवित्तद्धि मुञ्चति । न मुञ्चति तथा मन्दो ज्ञातदोषोऽपि मूढधीः ॥ २१९ इति श्रीलाटी संहितायां दर्शनप्रतिमा महाधिकारे मूलगुणाष्टक प्रतिपालसप्त व्यसनरोधवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥१॥ संसारमें हँसी होनेसे भले शिष्ट या सभ्य लोगों में उसकी अमान्यता या अपमान हो जाता है तथा मालूम हो जानेपर उसे कठोर राजदण्ड मिलता है तथा राज्यकी ओरसे उसका सब धन हरण कर लिया जाता है ॥२१६ ॥ अथवा तीव्र मोह होने के कारण परस्त्री सेवन करनेवालोंका मरण भी हो जाता है तथा उपदंग आदि अनेक प्रकारके भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं इसके लिये तो कुछ आश्चर्य ही नहीं करना चाहिये । अर्थात् परस्त्री सेवन करनेवालोंके उपदंश आदि भयंकर रोग उत्पन्न होते ही हैं इसमें तो किसी प्रकारका सन्देह ही नहीं है || २१७॥ अथवा परलोकमें जितने असह्य से असह्य दुःख हैं वे सब परस्त्री सेवन करने रूप व्यसनमें लीन होनेवाले मनुष्योंको अवश्य प्राप्त होते हैं || २१८ || हमारा तो यह सिद्धान्त है कि जो इस परस्त्री सेवनके दोषोंको जानता है, इसको अवश्य छोड़ देता है। कदाचित् कोई मन्द बुद्धि होता है और वह दोषोंको नहीं जानता तो वह नहीं भी छोड़ता है परन्तु जो दोषोंको जानकर भी नहीं छोड़ता उसे सबसे बढ़कर मूर्ख समझना चाहिये ॥ २१९ ॥ इस प्रकार दर्शनप्रतिमा नामके महा अधिकारमें आठ मूलगुणोंको पालन करने और सातों व्यसनोंका त्याग करनेका वर्णन करनेवाला यह प्रथम सर्ग समाप्त हुआ ||१|| Jain Education International २९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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