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________________ श्रावकाचार-संग्रह एतत्सर्वं परिज्ञाय स्वानुभूतिसमक्षतः । पराङ्गनासु नादेया बुद्धिर्धोधनशालिभिः || २०७ या निषिद्धाऽस्ति शास्त्रेषु लोकेऽत्रातीव गर्हिता । सा श्रेयसी कुतोऽन्यस्त्री लोकद्वय हितैषिणाम् ॥२०८ त्याज्यं वत्स परस्त्रीषु रति तृष्णोपशान्तये । विमृश्य चापदां चक्रं लोकद्वयविध्वंसिनीम् ॥२०९ श्रूयते बहवो नष्टाः परस्त्रीसङ्गलालसाः । ये दशास्यादयो नूनमिहामुत्र च दुःखिताः || २१० श्रूयन्ते न परं तत्र दृश्यन्तेऽद्यापि केचन । रागाङ्गारेषु संदग्धाः दुःखितेभ्योऽपि दुःखिताः ॥२११ आस्तां यन्नरके दुःखं भावतोव्रानुवेदिनाम् । जातं पराङ्गनासक्ते लोहाङ्गनादिलिङ्गनात् ॥ २१२ इहैवानर्थसन्देहो यावानस्ति सुदुस्सहः । तावान्न शक्यते वक्तुमन्ययोषिन्मतेरितः ॥ २१३ आदावुत्पद्यते चिन्ता द्रष्टुं वक्तुं समीहते । ततः स्वान्तभ्रमस्तस्माद रतिर्जायते ध्रुवम् ॥२१४ ततः क्षुत्तृविनाशः स्याद्वपुः काश्यं ततो भवेत् । ततः स्यादुद्यमाभावस्ततः स्याद्भविणक्षतिः ॥ २१५ उपहास्यं च लोकेऽस्मिन् ततः शिष्टेष्वमान्यता । इङ्गिते राजदण्डः स्यात्सर्वस्वहरणकः ॥२१६ २८ चाहिये - एक गृहीता दूसरी अगृहीता । जो सामान्य स्त्रियाँ हैं वे सब गृहीतामें ही अन्तर्भूत कर लेना चाहिये (तथा वेश्यायें अगृहीता समझनी चाहिये ) || २०६ || अपने अनुभव और प्रत्यक्षसे इन सब परस्त्रियोंके भेदोंको समझकर बुद्धिमान पुरुषोंको परस्त्रियोंके सेवन करने में अपनी बुद्धि कभी नहीं लगानी चाहिए || २०७|| जो कुलटा परस्त्री समस्त शास्त्रोंमें निषिद्ध है, स्थान-स्थानपर उसके सेवन करनेका निषेध किया है तथा जो इस संसार में भी अत्यन्त निन्दनीय गिनी जाती है ऐसी परस्त्री इस लोक और परलोक दोनों लोगोंका हित चाहनेवाले लोगोंके लिये कल्याण करनेवाली किस प्रकार हो सकती है अर्थात् परस्त्री सेवन करनेसे इस जीवका कल्याण कभी नहीं हो सकता ॥ २०८॥ वत्स ! प्रिय ! परस्त्रीमें प्रेम करना अनेक आपत्तियोंका स्थान है तथा वह परस्त्री दोनों लोकोंके हितका नाश करनेवाली है यही समझकर अपनी तृष्णा या लालसाको शान्त करने के लिये परस्त्री प्रेम करनेका त्याग अवश्य कर देना चाहिये || २०९ || इस परस्त्री सेवनकी लालसा रखनेवाले रावण आदि बहुतसे महापुरुष नष्ट हो गये और उन्होंने इस लोक तथा परलोक दोनों लोकों में अनेक प्रकारके दुःख पाये ऐसा अनेक शास्त्रों में सुना जाता है || २१०|| परस्त्रीकी लालसा रखनेवाले पुरुष अनेक प्रकारसे दुःखी होते हैं यह बात केवल शास्त्रोंमें ही नहीं सुनी जाती, किन्तु आजकल भी देखी जाती है । आज भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जो इस रागरूपी अंगारेकी अग्निसे जलकर अत्यन्त दुःखी लोगोंसे भी अधिक दुःखी हो रहे हैं ।। २११॥ परस्त्रियोंमें आसक्त रहने वाले लोगोंको उनकी तीव्र लालसाके कारण नरकमें गरम लोहेकी स्त्रियोंके आलिंगन कराने से जो दुःख होता है वह तो होता ही है, किन्तु इस लोक में भी परस्त्री सेवन करनेवालोंको जो अत्यन्त असह्य दुःख और अनेक अनर्थ उत्पन्न होते हैं वे भी कहे नहीं जा सकते ॥ २१२-२१३॥ देखो, परस्त्री सेवन करनेवालोंके सबसे पहले चिन्ता उत्पन्न होती है फिर उस परस्त्रीको देखनेकी लालसा उत्पन्न होती है, फिर उसके साथ बातचीत करनेकी लालसा होती है, फिर उसका हृदय भ्रम पड़ जाता है और फिर हृदयमें भ्रम उत्पन्न होनेसे अवश्य ही अरुचि हो जाती है अर्थात् किसी भी काममें उसका चित्त नहीं लगता ॥ २१४ || अरुचि उत्पन्न होनेसे उसकी भूख प्यास सब नष्ट हो जाती है, भूख प्यास नष्ट होनेसे शरीर कृश हो जाता है, शरीर कृश होनेसे फिर वह मनुष्य उद्यम नहीं कर सकता, किसी भी प्रकारका व्यापार नहीं कर सकता और व्यापार न करनेसे उसके धनका नाश हो जाता है || २१५ || इसके सिवाय इस संसारमें उसकी हँसी होती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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