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________________ लाटीसंहिता विशेषोऽस्ति मिथश्चात्र परत्वेकत्वतोऽपि च । गृहीता चागृहीता च तृतीया नगराङ्गना ॥१९८ गृहीताऽपि द्विषा तत्र यथाऽऽद्या जीवभर्तृका । सत्सु पित्रादिवर्गेषु द्वितीया मृतभर्तृका ॥ १९९ चेटिका या च विख्याता पतिस्तस्याः स एव हि । गृहीता सापि विख्याता स्यादगृहीता च तद्वत् ॥२०० जीवत्सु बन्धुवर्गेषु रण्डा स्यान्मृतभर्तृका । मृतेषु तेषु सेव स्यादगृहीता च स्वैरिणी ॥२०१ अस्याः संसर्गवेलायामिङ्गिते नरि वैरिभिः । सापराधतया दण्डो नृपादिभ्यो भवेद्ध्रुवम् ॥२०२ केचिज्जैना वदन्त्येवं गृहीतंषा स्वलक्षणात् । नृपादिभिर्गृहीतत्वान्नीतिमार्गानतिक्रमात् ॥ २०३ विख्यातो नीतिमार्गोऽयं स्वामी स्याज्जगतां नृपः । वस्तुतो यस्य न स्वामी तस्य स्वामी महीपतिः ॥२०४ तन्मतेषु गृहीता सा पित्राद्यैरावृतापि या । यस्याः संसर्गतो भीतिर्जायते न नृपादितः ॥२०५ तन्मते द्विधैव स्वंरी गृहीताऽगृहीतभेदतः । सामान्यवनिता या स्याद्गृहीतान्तर्भावतः || २०६ सेवन करना ही निषिद्ध बतलाया है - त्याग करने योग्य बतलाया है फिर भला परस्त्रीके सेवन करनेकी तो बात ही क्या है । उसका त्याग तो अवश्य ही कर देना चाहिए तथापि प्रकरण पाकर उसका स्वरूप बतलानेके लिये यहाँपर थोड़ा-सा उसका वर्णन करते हैं || १९७|| परस्त्रियां भी दो प्रकारको है एक दूसरेके अधीन रहनेवाली और दूसरी स्वतन्त्र रहनेवाली, जिनको क्रमशः गृहीता और अगृहीता कहते हैं । इनके सिवाय तीसरी वेश्या भी परस्त्री कहलाती है ॥ १९८ ॥ उनमें भी गृहीता या विवाहिता स्त्रियां दो प्रकारकी हैं - एक ऐसी स्त्रियाँ जिनका पति जीता है, तथा दूसरी ऐसी स्त्रियां जिनका पति तो मर गया हो परन्तु माता, पिता, भाई आदि जीते (जीवित) हों और उन्हींके यहाँ रहती हों । अथवा जेठ देवरके यहाँ रहती हों ॥ १९९ || इनके सिवाय जो दासी हो और उसका पति वही घरका स्वामी हो तो वह भी गृहीता कहलाती है । यदि वह दासी किसीकी रक्खी हुई न हो, स्वतन्त्र हो तो वह गृहीता दासी के समान ही अगृहीता कहलाती है ॥ २०० ॥ जिसके भाई बन्धु जीवित हों परन्तु पति मर गया हो ऐसी विधवा स्त्रीको भी गृहीता ही कहते हैं । यदि ऐसो विधवा स्त्रोके भाई बन्धु आदि सब मर जायँ और वह स्वतन्त्र रहती हो तो उसको अगृहीता कहते हैं ||२०१ ॥ यदि ऐसी स्त्रियोंके साथ संसर्ग करते समय कोई शत्रु राजाको सूचित कर दे तो इस महा अपराधके बदले उस मनुष्यको राज्यकी ओरसे भी कठोर दण्ड मिलता है || २०२ || कितने ही जैनी लोग यह भी कहते हैं कि जिस स्त्रीका पति भी मर atr और भाई बन्धु आदि भी सब मर जायँ तो भी अगृहीता नहीं कहलाती किन्तु गृहीता ही कहलाती है क्योंकि गृहीताका जो ( किसीके द्वारा ग्रहण की हुई) लक्षण बतलाया है वह उसमें घटित होता है क्योंकि नीतिमार्गका उल्लंघन न करते हुए राजाओंके द्वारा वह ग्रहण की जाती है इसलिए वह गृहोता ही है || २०३ || नीतिमार्गका उल्लंघन न करते हुए राजाओंके द्वारा वह ग्रहण की हुई समझी जाती है इसका भी कारण यह है कि संसारमें यह नीतिमार्ग प्रसिद्ध है कि संसार भरका स्वामी राजा होता है । वास्तवमें देखा जाय तो जिसका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा होता ही है || २०४ || जो लोग इस नीतिको मानते हैं उनके मतके अनुसार उसको गृहीता ही मानना चाहिए। चाहे वह माता-पिता के साथ रहती हो चाहे अकेली रहती हो । उनके मत में अगृहीता उसे समझना चाहिये जिसके साथ संसर्ग करनेसे राजादिका डर न हो ॥२०५॥ ऐसे लोगोंके मतमें इच्छानुसार रहनेवाली (कुलटा ) स्त्रियां दो प्रकारकी ही समझनी Jain Education International २७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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