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________________ श्रावकाचार-संग्रह मैवं स्पर्शादि यद्वस्तु बाह्यं विषयसंज्ञिकम् । तद्धेतुस्तादृशो भावो जीवस्यैदास्ति निश्चयात् ॥१९१ दृश्यते जलमेवैकर्मकरूपं स्वरूपतः । चन्दनादिवनराजि प्राप्य नानात्वमध्यगात् ॥१९२ न च वाच्यमयं जीवः स्वायत्तः केवलं भवेत् । बाह्यवस्तु विनाऽऽश्रित्य जायते भावसन्ततिः ॥१९३ ततो बाह्यनिमित्तानुरूपं कार्य प्रमाणतः। सिद्धं तत्प्रकृतेऽप्यस्मिन्नस्ति भेदो हि लीलया ॥१९४ ।। अत्राभिज्ञानमप्यस्ति सर्वलोकाभिसम्मतम् । दासाः दास्याः सुता जेया तत्सुतेभ्यो ह्यनादृशाः ॥१९५ कृतं च बहुनोक्न सूक्तं सर्वविदाज्ञया । स्त्रीकर्तव्यं गृहस्थेन दर्शनवतधारिणा ॥१९६ भोगपत्नी निषिद्धा चेत्का कथा परयोषिताम् । तथाप्यत्रोच्यते किञ्चित्तत्स्वरूपाभिव्यक्तये ॥१९७ केवल यही नहीं समझना चाहिये कि कर्मबन्ध होने में या परिणामों में शुभ अशुभपना होने में स्पर्श करना या विषय सेवन करना आदि बाह्य वस्तु ही कारण हैं किन्तु जीवोंके वैसे परिणाम होना ही निश्चयसे कारण हैं। भावार्थ-बाह्य क्रिया एक-सी होनेपर भी सबके परिणाम एक-से नहीं होते, इसी प्रकार धर्मपत्नीके सेवन करने में जीवोंके मन्द परिणाम होते हैं इसलिये उसके सेवन करनेसे तीव्र अशुभ कर्मोंका बन्ध नहीं होता, किन्तु दासीका सेवन करने में विषय सेवन करनेकी तीव्र लालसा होती है इसीलिए उसके सेवन करनेसे तीव्र अशुभ कर्मों का बन्ध होता है। अतएव दासी और धर्मपत्नीमें बहुत भारी भेद है ॥१९१॥ संसारमें भी देखा जाता है कि जो जलस्वरूपसे एकरूप है अथवा एक ही है वह एक ही जल चन्दनके पेड़में देनेसे चन्दन रूप हो जाता है, नीममें देनेसे कड़वा हो जाता है, धतूरेमें देनेसे विषरूप हो जाता है और ईखमें देनेसे मीठे गन्नेरूप परिणत हो जाता है। जल पात्र भेदसे अनेक प्रकारका परिणत हो जाता है उसी प्रकार धर्मपत्नी या दासीमें एक-सी क्रिया होने पर भी पात्र भेदसे परिणामों में बड़ा भारी अन्तर पड़ जाता है तथा परिणामोंमें अन्तर पड़नेसे शुभ अशुभरूप कर्मबन्धमें बड़ा भारी अन्तर पड़ जाता है ।।१९२।। कदाचित् यह कहा जाय कि यह जीव शुभ-अशुभरूप कर्मबन्ध करने में नितान्त स्वाधीन है क्योंकि भाव या परिणामोंकी परम्परा बाह्य पदार्थोंके आश्रय किये विना भी बगबर बनी हो रहती है अर्थात् परिणामोंके शुभ-अशुभ होनेमें बाह्य पदार्थ कोई कारण नहीं है । शुभ या अशुभ परिणामोंको उत्पन्न करना सर्वथा जीवके अधीन है इसलिये चाहे दासीका सेवन किया जाय और चाहे धर्मपत्नीका सेवन किया जाय उन दोनोंके सेवन करने में परिणामोंमें कोई अन्तर नहीं पड़ता इसलिए दासी और धर्मपत्नीमें कोई भेद नहीं है सो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि परिणामों में शुभअशुभपना बाह्य पदार्थों के आश्रयसे ही होता है। बाह्य पदार्थोका जैसा आश्रय मिलता है वैसे ही परिणाम बदलकर हो जाते हैं ॥१९३।। इसलिये यही प्रमाण मानना चाहिये कि जैसा बाह्य पदार्थों का निमित्त मिलता है उन्हीं के अनुसार कार्यकी सिद्धि होती है। इसी न्यायके अनुसार इस प्रकरणमें भी दासी और धर्मपत्नीमें लोलापूर्वक बहुत ही सरल रोतिसे भेद सिद्ध हो जाता है ॥१९४।। इस विषय में समस्त लोगोंके द्वारा माना हुआ ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि समस्त संसारके समस्त लोग यह मानते हैं कि दासोसे जो पुत्र उत्पन्न होते हैं वे दास कहलाते हैं और वे दास धर्मपत्नीसे उत्पन्न हए पुत्रोंसे सर्वथा भिन्न दूसरे प्रकारके ही कहलाते हैं। इससे भी धर्मपत्नी और दासीमें बडा भारी अन्तर सिद्ध होता है ॥१९५|| बद्रत करनेसे क्या? भगवान सर्व सर्वज्ञदेवको आज्ञानुसार शास्त्रोंमें जो कुछ वर्णन किया है, जो व्रत बतलाये हैं वे सब दर्शन प्रतिमारूप व्रतको धारण करनेवाले गृहस्थोंको अवश्य स्वीकार करने चाहिये ॥१९६॥ शास्त्रोंमें जब भोगपत्नीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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