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________________ लाटीसंहिता आत्मज्ञातिः परजातिः सामान्यवनिता तु या। पाणिग्रहणशून्या चेच्चेटिका सुरतप्रिया ॥१८४ चेटिका भोगपत्नी च द्वयोर्भोगाङ्गमात्रतः । लौकिकोक्तिविशेषोऽपि न भेदः पारमार्थिकः ॥१८५ भोगपत्नी निषिद्धा स्यात्सर्वतो धर्मवेदिनाम् । ग्रहणस्याविशेषेऽपि दोषो भेदस्य सम्भवात् ॥१८६ अस्ति दोषविशेषोऽत्र जिनदृष्टश्च कश्चन । येन दास्याः प्रसङ्गेन वज्रलेपोऽघसञ्चयः ॥१८७ भावेषु यदि शुद्धत्वं हेतुः पुण्यार्जनादिषु । एवं वस्तुस्वभावत्वात्तद्रतात्तद्धि नश्यति ॥१८८ उक्तं चमुनिरेव हि जानाति द्रव्यसंयोगजं गुणम् । मक्षिका वमनं कुर्यात्तद्विट छदिप्रणाशिनी ॥११ ननु यथा धर्मपन्यां यैव दास्यां क्रियैव सा। विशेषानुपलब्धेश्च कथं भेदोऽवधार्यते ॥१८९ मैवं अतो विशेषोऽस्ति युक्तिस्वानुभवागमात् । दृष्टान्तस्यापि सिद्धत्वाद्धेतोः साध्यानुकूलतः ॥१९० भोगका ही साधन है ॥१८३।। इस प्रकार अपनी जाति और परजातिके भेदसे स्त्रियाँ दो प्रकार हैं तथा जिसके साथ विवाह नहीं हुआ है ऐसो स्त्री दासी या चेरी कहलाती है, ऐसी दासी केवल भोगाभिलाषिणी होती है ॥१८४॥ दासी और भोगपत्नी ये दोनों ही केवल उपभोग-सेवन करनेके ही काम आती हैं। इसलिए यद्यपि लौकिक दृष्टिके अनुसार उनमें कुछ थोड़ा-सा भेद है तथापि परमार्थसे देखा जाय तो उन दोनोंमें कोई भेद नहीं है ॥१८५।। धर्मके जाननेवाले पुरुषोंको भोगपत्नीका पूर्णरूपसे त्याग कर देना चाहिए । यद्यपि विवाहिता होनेसे वह ग्रहण करने योग्य है तथापि धर्मपत्नीसे वह सर्वथा भिन्न है, सब तरहके अधिकारोंसे रहित है, इसलिए उसके सेवन करनेमें दोष ही है ॥१८६।। भोगपत्नीके सेवन करनेसे अनेक प्रकारके विशेष दोष उत्पन्न होते हैं जिनको कि भगवान् सर्वज्ञदेव ही जानते हैं। दासीके साथ विषय सेवन करनेसे वज्र लेपके समान पापोंका संचय होता है ।।१८७॥ यदि पुण्य उपार्जन करने में भावोंकी शुद्धता ही कारण है क्योंकि वस्तुका स्वभाव ही इसी प्रकार है तो फिर दासीके साथ विषय सेवन करनेसे वह परिणामोंकी शुद्धता अवश्य नष्ट हो जाती है ।।१८८।। कहा भी है-किस-किस द्रव्यके संयोगसे कैसा-कैसा गुण प्रकट होता है इस बातको मुनि ही जानते हैं। हम लोगोंके अल्पज्ञानमें यह बात नहीं आ सकती। देखो, मक्खीके पेटमें चले जानेसे वमन हो जाता है परन्तु उसको विष्टा या बीट खा लेनेसे वमन रोग दूर हो जाता है। अतएव यह सिद्ध है कि दासी या भोगपत्नीके सेवन करने में विषय सेवनको तीव्र लालसा रहती है, इसलिए परिणामोंकी शुद्धता नहीं रह सकती तथा परिणामोंमें तीव्र कषायोंका संचार होनेसे या काम सेवनकी तीव्र लालसा होनेसे तीव्र पापकर्मोका बन्ध होता है ॥११॥ शंका-विषय सेवन करते समय जो क्रिया धर्मपत्नीमें की जाती है वही क्रिया दासीमें की जाती है उन दोनोंके साथ होनेवाली क्रियाओंमें कोई किसी प्रकारका अन्तर नहीं है, फिर भला दासी और धर्मपत्नीमें भेद क्यों बताया जाता है। जिस प्रकार उनके साथ होनेवाली क्रियाओं में कोई भेद नहीं है उसी प्रकार उन दोनों में भेद नहीं होना चाहिए ॥१८९।। समाधानपरन्तु ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि दासी और धर्मपत्नी में बहुत अन्तर है, यह बात. युक्तिसे भी सिद्ध होती है, आगमसे भो सिद्ध है और अपने अनुभवसे भी सिद्ध होती है। इसके लिये अनेक दृष्टान्त मिलते हैं और इस साध्यको सिद्ध करनेवाले अनेक हेतु मिलते हैं ॥१९०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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