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________________ २४ श्रावकाचार-संग्रह न केवलं हि श्रूयन्ते दृश्यन्तेऽत्र समक्षतः । यतोऽद्यापि चुरासक्तो निग्रहं लभते नृपात् ॥१७४ सन्ति तत्राप्यतीचाराश्चौर्यत्यागवतस्य च । तानवश्यं यथास्थाने ब्रूमो नातीवविस्तरात् ॥१७५ अथान्ययोषिव्यसनं दूरतः परिवर्जयेत् । आशीविषमिवासां यच्चरित्रं स्याज्जगत्त्रये ॥१७६ तुर्याणुव्रते तस्यान्तर्भावः स्थादस्य लक्षणात् । लक्ष्यतेऽत्रापि दिग्मात्रं प्रसङ्गादिह साम्प्रतम् ॥१७७ देवशास्त्रगुरून्नत्वा बन्धुवर्गात्मसाक्षिकम् । पत्नी पाणिग्रहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता ॥१७८ तत्र पाणिगृहीता या सा द्विधा लक्षणाद्यथा । आत्मज्ञातिः परज्ञातिः कर्मभूरूढिसाधनात् ॥१७९ परिणीतात्मज्ञातिश्च धर्मपत्नीति सैव च । धर्मकाये हि सध्रीची यागादो शुभकर्मणि ॥१८० सनस्तस्याः समुत्पन्नः पितुर्धर्मेऽधिकारवान । सः पिता तु परोक्षः स्याट्टैवात्प्रत्यक्ष एव वा ॥१८१ सः सूनुः कर्मकार्येऽपि गोत्ररक्षादिलक्षणे । सर्वलोकाविरुद्धत्वादधिकारी न चेतरः ॥१८२ परिणीतानात्मज्ञातिर्या पितृसाक्षिपूर्वकम् । भोगपत्नीति सा ज्ञेया भोगमात्रैकसाधनात् ॥१८३ वालोंके दुःखोंकी कथायें केवल सुनी ही नहीं जाती हैं अपितु इस समय में भी प्रत्यक्ष देखी जाती हैं क्योंकि आजकल भी चोरी करनेवाले लोगों को राज्यकी ओरसे अनेक प्रकारके कठोर दण्ड दिये जाते हैं ।।१७४।। इस चौर्यत्यागवतके कितने ही अतिचार हैं उनको भी समयानुसार अचौर्याणुव्रतका वर्णन करते समय थोड़ेसे विस्तारके साथ अवश्य वर्णन करेंगे ॥१७५|| अब आगे परस्त्री व्यसनके त्यागका वर्णन करते हैं। जिन स्त्रियोंका चरित्र लोकोंमें सर्पके महाविषके समान प्रसिद्ध है ऐसी परस्त्रियोंके सेवन करनेका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिये तथा दूरसे ही कर देना चाहिये ॥१७६॥ परस्त्रो त्याग व्रतका जो लक्षण है उससे यह व्रत चौथे अणुव्रतमें अन्तर्भूत होता है तथापि इस समय प्रकरण पाकर यहाँपर उसका थोड़ा सा वर्णन करते हैं ।।१७७॥ देव शास्त्र गुरुको नमस्कारकर तथा अपने भाई बन्धुओंको साक्षीपूर्वक जिस कन्याके साथ विवाह किया जाता है वह विवाहिता स्त्री कहलाती है। ऐसी विवाहिता स्त्रीके सिवाय अन्य सब पत्नियाँ दासी कहलाती हैं ।।१७८।। उसमें भी जो विवाहिता पत्नी है वह दो प्रकार है तथा उन दोनोंके लक्षण अलग हैं। कर्मभूमिमें रूढ़िसे चली आयी जो अलग-अलग जातियाँ है उनमेंसे अपनी जातिकी कन्याके साथ विवाह करना और अन्य जातिको कन्याके साथ विवाह करना। इस प्रकार अपनी जातिकी विवाहिता पत्नी और अन्य जातिकी विवाहिता पत्नोके भेदसे पत्नियों के दो भेद हो जाते हैं ॥१७९।। अपनी जातिकी जिस कन्याके साथ विवाह किया जाता है वह धर्मपत्नी कहलाती है ऐसी धर्मपत्नी ही यज्ञपूजा प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्यों में या प्रत्येक धर्मकार्य में साथ रह सकती है ।।१८०।। उस धर्मपत्नीसे जो पुत्र उत्पन्न होता है वही पिताके धर्मका अधिकारी होता है क्योंकि कभी-कभी पिता तो परोक्ष हो जाता है, संन्यास धारण कर लेता है अथवा स्वर्गवासी हो जाता है तथा भाग्योदयसे कभी प्रत्यक्ष भी बना रहता है ।।१८।। वह धर्मपत्नीसे उत्पन्न हुआ पुत्र हो समस्त धर्मकार्यों में अधिकारी होता है और गोत्रको रक्षा करनेरूप कार्य में अर्थात् पुत्र उत्पन्न कर आगेके लिये गोत्रको रक्षा करनेरूप कार्यमें या अपने समस्त घरका स्वामी बनने या समस्त गृहस्थ धर्मकी रक्षा करने रूप कार्यमें अधिकारी होता है क्योंकि धर्मपत्नीसे उत्पन्न हुआ पुत्र ही समस्त लोकका अविरोधी पुत्र है। अन्य जातिकी विवाहिता कन्यारूप पत्नीसे उत्पन्न हुआ पुत्र ऊपर लिखे कार्यों में कुछ भी अधिकार नहीं रखता ।।१८२।। जो पिताकी साक्षीपूर्वक अन्य जातिकी कन्याके साथ विवाह किया जाता है वह भोगपत्नी कहलाती है क्योंकि वह केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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