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________________ लाटीसंहिता व्यसनं स्यात्तत्रासक्तिः प्रवृत्तिर्वा मुहुर्मुहुः । यद्वा व्रतादिना क्षुद्रैः परित्यक्तुमशक्यता ॥१६४ तदेतद्व्यसनं नूनं निषिद्धं गृहमेधिनाम् । संसारदुःखभीरूणामशरीरसुखैषिणाम् ॥१६५ तत्स्वरूपं प्रवक्ष्यामः पुरस्तादल्पविस्तरात् । उच्यतेऽत्रापि दिग्मानं सोपयोगि प्रसङ्ग सात् ॥१६६ उक्तः प्राणिवधो हिंसा स्यावधर्मः स दुःखदः । नार्थाज्जीवस्य नाशोऽस्ति किन्तु बन्धोऽत्र पीडया ॥१६७ ततोऽवश्यं हि पापः स्यात्परस्वहरणे नृणाम् । यादृशं मरणे दुःखं तादृशं द्रविणक्षतौ ॥१६८ एवमेतत्परिज्ञाय दर्शनश्रावकोत्तमैः । कर्तव्या न मतिः क्वापि परदारधनादिषु ॥१६९ ।। आस्तां परस्वस्वीकाराद्यद् दुःखं नारकादिषु । यदत्रैव भवेद् दुःखं तद्वक्तुं कः क्षमो नरः ॥१७० चौर्यासक्तो नरोऽवश्यं नासिकादिक्षतिं लभेत् । गर्दभारोपणं चापि यद्वा पञ्चत्वमाप्नुयात् ॥१७१ उद्विग्नो विघ्नशङ्की च भ्रान्तोऽनवस्थचित्तकः । न क्षणं तिष्ठते स्वस्थः परवित्तहरो नरः ॥१७२ परस्वहरणासक्तैः प्राप्ता दुःखपरम्पराः । श्रूयते तत्कथा शास्त्राच्छिवभूतिद्विजो यथा ॥१७३ आसक्त होना अथवा चोरी करने में बार-बार प्रवृत्ति करना चोरीका व्यसन कहलाता है अथवा 'क्षुद्रपुरुष जो अचौर्य आदि व्रतोंको धारण कर चोरो आदिका त्याग नहीं कर सकते उसको भी चोरीका व्यसन कहते हैं ॥१६४॥ जो संसारके दुःखोंसे भयभीत हैं और आत्मजन्य सुखोंकी इच्छा करते हैं ऐसे गृहस्थोंके लिये यह चोरीका व्यसन अवश्य ही त्याग करने योग्य बतलाया है अर्थात् व्रती गृहस्थोंको इस चोरीके व्यसनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥१६५।। आगे अचौर्य अणुव्रतका वर्णन करते समय थोड़ेसे विस्तारके साथ इसका वर्णन करेंगे, परन्तु यहां भी प्रकरणके अनुरोधसे थोड़ा-सा वर्णन कर देते हैं ॥१६६॥ शास्त्रोंमें कहा है कि प्राणियोंका वध करना हिंसा है तथा हिंसा करना ही अधर्म है और अत्यन्त दुःख देनेवाला है। यद्यपि दूसरेका धन हरण करनेमें जीवका नाश नहीं होता है तथापि उसको जो मानसिक महासन्ताप और वेदना होती है उससे चोरी करनेवालोंको अशुभ कर्मोका तीव्र बन्ध होता है और इसीलिये चोरी करनेवाले मनुष्योंको अवश्य महापाप उत्पन्न होता है क्योंकि जिसका धन हरण किया जाता है उसको जैसा मरनेमें दुःख होता है वैसा हो दुःख धनके नाश हो जानेपर होता है ॥१६७-१६८।। ऊपर लिखे अनुसार चोरी करनेके महादोषोंको समझकर दर्शनप्रतिमा धारण करनेवाले उत्तम श्रावकोंको दूसरेकी स्त्री या दूसरेका धन हरण करनेके लिये कभी भी अपनी बुद्धि नहीं करनी चाहिये ॥१६९।। दूसरेका धन हरण करनेसे या चोरी करनेसे जो नरकादिक दुर्गतियोंमें महादुःख होता है वह तो होता ही है किन्तु ऐसे लोगोंको इस जन्ममें ही जो दुःख होते हैं उनको भी कोई मनुष्य कह नहीं सकता ॥१७०।। जो मनुष्य चोरी करने में आसक्त रहता है पकड़े जानेपर उसकी नाक काट ली जाती है या हाथ काट लिये जाते हैं, उसे गधेपर चढ़ाकर बाजारमें घुमाया जाता है और अन्त में उसे प्राणदण्ड दिया जाता है॥१७॥ जो मनुष्य दूसरेका धन हरण कर चित्तमें सदा उद्वेग या भय बना रहता है, उसे पद-पदपर विघ्नोंकी शंका बनी रहती है, उसका हृदय हर समय इधर-उधर घूमा करता है, उसका चित्त सदा डावांडोल रहता है और वह एक क्षण भी निराकुल नहीं रह सकता ॥१७॥ दूसरेके धन हरण करनेमें आसक्त रहनेवाले लोगोंने पहले जन्म-जन्मान्तर तक अनेक प्रकारके दुःख पाये हैं। जिनकी कथायें शास्त्रोंसे सुनी जाती हैं। जैसे शिवभूति ब्राह्मणने चोरो करनेसे ही अनेक प्रकारके दुःख पाये थे ॥१७३। चोरी करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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