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________________ श्रावकाचार-संग्रह तस्कराविविघातार्थ स्थानेषु चण्डभोरुषु । योद्धमुत्सुकभूपादियोग्यासु युद्धभूमिषु ॥१५४ गीतनावविवाहादिनाटयशालादिवेश्मषु । हिंसारम्भेषु कूपाविखननेषु च कम्मंसु ॥१५५ न कर्तव्या मतिर्षीरैः स्वप्नमा मनागपि । केवलं कर्मबन्धाय मोहस्यैतद्धि स्फूजितम् ॥१५६ गच्छाप्यात्मकायायं गच्छेद भूमि विलोकयन् । युगवघ्नां दृशा सम्यगोर्यासंशुद्धिहेतवे ॥१५७ तत्र गच्छन्न छिन्द्वद्वा तरुपर्णफलादिकान् । पद्भ्यां दोयां न कुर्वोत जलस्फालनकर्म च ॥१५८ शर्करादिपरिक्षेपं प्रस्तरैर्भूमिकुट्टनम् । इतस्ततोऽटनं चापि क्रीडाकूर्दनकर्म च ॥१५९ हिंसोपदेशमित्यादि न कुर्वीत विचक्षणः । प्राक्पदव्यामिवारूढः सर्वतोऽनर्थदण्डमुक् ॥१६० व्याख्यातो मृगयादोषः सर्वज्ञाज्ञानतिक्रमात । अर्गलेवाव्रतादीनां व्रतादीनां सहोदरः ॥१६१ अथ चौर्यव्यसनस्य त्यागः श्रेयानिति स्मृतः । तृतीयाणुव्रतस्यान्तर्भावी चाप्यत्र सूत्रितः ॥१६२ तल्लक्षणं यथा सूत्र निविष्टं पूर्वसूरिभिः । यद्यददत्तादानं तत्स्तेयं स्तेयविजितैः ॥१६३ ही ऐसे स्थानोंमें कभी नहीं जाना चाहिये ॥१५१-१५३।। जिन स्थानोंमें चोर, डाकू, हत्यारे आदि महा अपराधी मनुष्योंको प्राण दण्ड दिया जाता हो ऐसे अत्यन्त भयानक और भय उत्पन्न करनेवाले स्थानोंमें जहाँपर यद्ध करनेकी इच्छा करनेवाले राजा सेनापति आदि लोग यद्ध कर सकें ऐसी यद करने योग्य यद्धभमिमें, जिनमें गाना, नाचना. उत्सव. विवाह. नाटक आदि होते हों ऐसे स्थानोंमें जानेके लिये धीरवीर पुरुषको स्वप्नमें भी कभी बुद्धि नहीं करनी चाहिए, इसी प्रकार जिनमें बहत-सी हिंसा या आरम्भ होता हो ऐसे का बावडी खदाने आदिके कार्योंके करनेमें स्वप्नमें भी कभी अपनी थोड़ी-सी बुद्धि भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि ऐसे स्थानोंमें जानेसे या ऐसे स्थानोंको बनवानेसे केवल अशुभ कर्मोंका ही बन्ध होता है तथा मोहनीय कर्मके तीव्र उदयसे ही ऐसे स्थानोंमें जानेके लिये या ऐसे काम करनेके लिये बद्धि उत्पन्न होती है, इसलिये यह सब मोहकर्मका ही कार्य समझना चाहिये ॥१५४-१५६॥ व्रती गृहस्थको जब कभी अपने कार्यके लिये भी कहीं जाना हो तो उसे शुद्ध ईर्यापथ पालन करने के लिये अपने दोनों नेत्रोंसे शरीर प्रमाण चार हाथ पृथ्वीको देखते हए जाना चाहिये ॥१५७॥ मार्गमें चलते हए व्र को अपने पैरोंसे छोटे-छोटे पौधे. पत्ते या फल नहीं तोडते या काटने चाहिये तथा अपने दोनों पैरों व हाथोंसे पानीको उछालना नहीं चाहिये ।।१५८। इसी प्रकार ढेले-पत्थर फेंकना, पत्थरोंसे पृथ्वीको कूटना, इधर-उधर घूमना, केवल मनोविनोदके लिये कूदना, हिंसाका उपदेश देना इत्यादि विना प्रयोजनके व्यर्थ ही हिंसा उत्पन्न होनेवाले कार्य पूर्णरूपसे अनर्थदण्डोंका त्याग करनेवाले तथा पहली दर्शनप्रतिमाको धारण करनेवाले चतुर गृहस्थको कभी नहीं करने चाहिये ॥१५९-१६०॥ इस प्रकार भगवान् सर्वज्ञदेवको आज्ञाके अनुसार शिकार खेलनेके दोष बतलाये । इन दोषोंके त्याग कर देनेसे सब अव्रत रुक जाते हैं और व्रतोंको अत्यन्त सहायता पहुँचती है ॥१६१॥ आगे चोरी करने रूप व्यसनका त्याग करनेके लिये उपदेश देते हैं, क्योंकि चोरीका त्याग कर देना भी इस जीवके लिये कल्याणकारी है। यद्यपि चोरीका त्याग तीसरे अचौर्य अणुव्रतमें अन्तभूत होता है तो भी व्यसन रूपसे त्याग करनेका यहाँ उपदेश दिया है ॥१६२।। अचौर्य महाव्रतको धारण करनेवाले पहलेके आचार्योंने चोरीका लक्षण करते हुए बतलाया है कि जो दूसरेका विना दिया हुआ पदार्थ ग्रहण कर लेता है वह चोरी है ॥१६३॥ उस चोरी करने रूप कार्यमें अत्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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