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________________ लाटीसंहिता आखेटके तु हिंसायाः भावः स्याद्भूरिजन्मिनः । पश्चाद्देवानुयोगेन भोगः स्याद्वा न वा क्वचित् १४५ हिंसानन्देन तेनोच्चैरौद्रध्यानेन प्राणिनाम् । नारकस्यायुषो बन्धः स्यानिदिष्टो जिनागमे ॥१४६ ततोऽवश्यं हि हिंसायां भावश्चानर्थदण्डकः । त्याज्यः प्रागेव सर्वेभ्यः संक्लेशेभ्यः प्रयत्नतः ॥१४७ तत्रावान्तररूपस्य मृगयाभ्यासकर्मणः । त्यागः श्रेयानवश्यं स्यादन्यथाऽसातबन्धनम् ॥१४८ अतीचारास्तु तत्रापि सन्ति पापानुयायिनः । यानपास्य वतिकोऽपि निर्मलीभवति ध्रुवम् ॥१४९ कार्य विनापि क्रीडार्थ कौतुकार्थमथापि च । कर्तव्यमटनं नैव वापीकूपादिवर्त्मसु ॥१५० पुष्पादिवाटिकासूच्चैर्वनेषूपवनेषु च । सरित्तडागक्रीडाद्रिसरःशून्यगृहादिषु ॥१५१ शस्याधिष्ठानक्षेत्रेषु गोष्ठीनेष्वन्यवेश्मसु । कारागारगृहेषुच्चैर्मठेषु नृपवेश्मसु ॥१५२ एवमित्यादिस्थानेषु विना कार्य न जातुचित् । कौतुकादिविनोदार्थ न गच्छेन्मृगयोज्झितः ॥१५३ हैं तथा उनके सेवन करनेसे सुख मिलता भी है और उसमें जीवहिंसा होती है वह प्रसंगानुसार होती है। शिकार खेलनेके लिये जब घरसे निकलता है तब पशु-पक्षियोंके मारनेके परिणामोंको लेकर ही घरसे निकलता है। तदनन्तर उसके कर्मोके उदयके अनुसार भोगोपभोगकी प्राप्ति होती भी है और नहीं भी होती। शिकार खेलनेवाला प्राणियोंको मारनेके ही अभिप्रायसे जाता है परन्तु यह बात दूसरी है कि उसके हाथसे कोई जीव मरे या न मरे उसके परिणाम हिंसारूप ही रहते हैं ॥१४४-१४५।। शिकार खेलना हिंसामें आनन्द मानना है और हिंसा में आनन्द मानना रौद्रध्यान है तथा ऐसे रोद्रध्यानसे प्राणियोंको नरकायुका ही बन्ध होता है ऐसा जैनशास्त्रोंमें वर्णन किया है ॥१४६।। इसलिये मानना पड़ता है कि इस प्रकारकी हिंसा करने में अपने परिणाम रखना अवश्य ही अनर्थदण्ड है और इसीलिये समस्त संक्लेशरूप परिणामोंके त्याग करनेके पहले इस शिकार खेलनेका त्याग बड़े प्रयत्नसे बड़ी सावधानीसे कर देना चाहिये ॥१४७॥ शिकार खेलनेका अभ्यास करना, शिकार खेलनेकी मनोकामना रखकर निशान मारनेका अभ्यास करना तथा और भी ऐसी ही ऐसो शिकार खेलनेकी साधनरूप क्रियाओंका करना भो सब इसी शिकार खेलने में ही अन्तर्भूत होता है। इसलिये ऐसी क्रियाओंका, ऐसे अभ्यास करनेका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिये क्योंकि ऐसी क्रियाओंका त्याग करना भी कल्याण करनेवाला है। यदि ऐसी हिंसारूप क्रियाओंका त्याग नहीं किया जायगा तो फिर उन क्रियाओंसे दुःख देनेवाले अशुभ या असाता वेदनीय कोका ही बन्ध होगा ॥१४८। इस शिकार खेलनेके त्याग करने रूप व्रतके कितने ही अतिचार हैं जो शिकार खेलनेके समान ही पाप उत्पन्न करनेवाले हैं। उन समस्त अतिचारोंका त्याग कर व्रती गृहस्थ भी अत्यन्त निर्मल हो जाता है, इसलिए अपने व्रत निर्मल करनेके लिए अतिचारोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥१४९॥ विना किसी अन्य प्रयोजनके केवल क्रीड़ा करनेके लिए अथवा केवल तमाशा देखनेके लिए इधर-उधर नहीं घूमना चाहिये, किसो बावड़ी या कुआँके मार्गमें या और भी ऐसे ही स्थानोंमें विना प्रयोजन के कभी नहीं घूमना चाहिये ॥१५०॥ जिसने शिकार खेलनेका त्याग कर दिया है उसको विना किसी अन्य कार्यके केवल तमाशा देखनेके लिये या केवल मन बहलानेके लिए पौधे फूल वृक्ष आदिके बगीचोंमें, बड़े-बड़े वनोंमें, उपवनोंमें, नदियोंमें, सरोवरोंमें, क्रीड़ा करनेके छोटे-छोटे पर्वतोपर, क्रीड़ा करनेके लिये बनाये हुए तालाबोंमें, सूने मकानोंमें, गेहूं, जौ, मटर आदि अन्न उत्पन्न होनेवाले खेतोंमें, पशुओंके बांधनेके स्थानोंमें, दूसरोंके घरोंमें, जेलखानोंमें, बड़े-बड़े मठोंमें, राजमहलोंमें या और भी ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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