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________________ २० श्रावकाचार-संग्रह न वाच्यमेकमेवैतत्तावन्मात्राल्पदोषतः । द्यूतादिव्यसनासक्तेः कारणं धर्मध्वंसकृत् ॥१३५ सुगमत्वाद्धि विस्तारप्रयासो न कृतो मया । दोषः सर्वप्रसिद्वोऽत्र वावदूकतया कृतम् ॥१३६ सन्ति तत्राप्यतीचाराश्चतुर्थव्रतवर्तिनः । निर्देक्ष्यामो वयं तांस्तान तत्तत्रावसरे यथा ॥१३७ ख्यातः पण्याङ्गनात्यागः संक्षेपादक्षप्रत्य गत् । आखेटकपरित्यागः साधीयानिति शस्यते ॥१३८ अन्तर्भावोऽस्ति तस्यापि गुणाणुव्रतसंज्ञकैः । अनर्थदण्डत्यागाख्ये बाह्यानर्थक्रियादिवत् ॥१३९ तत्तत्रावसरेऽवश्यं वक्ष्यामो नातिविस्तरात् । प्रसङ्गाद्वा तदत्रापि दिग्मात्रयं वक्तुमर्हति ॥१४० ननु चानर्थदण्डोऽस्ति भोगादन्यत्र याः क्रियाः । आत्मानन्दाय यत्कर्म तत्कथं स्यात्तथाविधम् ॥१४१ यथा स्रक्चन्दनं योषिद्वस्त्राभरणभोजनम् । सुखार्थं सर्वमेवैतत्तथाखेटक्रियाऽपि च ॥१४२ मैवं तीवानुभागस्य बन्धः प्रमादगौरवात् । प्रमादस्य निवृत्त्यर्थं स्मृतं व्रतकदम्बकम् ॥१४३ स्रकचन्दनवनितादौ क्रियायां वा सुखाप्तये । भोगभावो सुखं तत्र हिंसा स्यादानुषङ्गिकी ॥१४४ रहता है ।।१३४॥ वेश्या सेवन करनेवाला जन्म-जन्म तक नरकादिक दुर्गतियोंके दुःख सहता रहता है। उसको यही एक दुःख भोगना पड़ता है यह बात नहीं कहनी चाहिये क्योंकि ऐसा कहनेसे वेश्या सेवन में थोड़ा दोष सिद्ध होता है। परन्तु वेश्यासेवन करना सबसे बड़ा महादोष है। जुआ खेलनेके व्यसन में लीन होनेका कारण यह वेश्यासेवन ही है। धर्मका नाश करनेवाला यह वेश्यासेवन ही है ॥१३५।। वेश्यासेवनके दोषोंका जान लेना अत्यन्त सुगम है इसलिये इसके दोष विस्तारके साथ वर्णन नहीं किये हैं। इसके सिवाय इस वेश्या सेवनके दोष बाल गोपाल तक सब लोगोंमें प्रसिद्ध हैं इसीलिये व्यर्थ ही अधिक कहनेसे कोई लाभ नहीं है ।।१३६।। इस वेश्या सेवनके त्याग रूप चतुर्थ ब्रह्मचर्याणुव्रतको धारण करनेवाले पुरुषोंके लिये इस वेश्या सेवनके त्यागमें भी कितने ही अतिचार लगते हैं। जिनको हम समयानुसार ब्रह्मचर्याणुव्रतका वर्णन करते समय वर्णन करेंगे ॥१३७। इस प्रकार इन्द्रियोंके द्वारा प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले दोषोंका वर्णन कर अत्यन्त संक्षेपसे वेश्या सेवनके त्यागका वर्णन किया। अब आगे शिकार खेलनेका त्याग करना भी अत्यन्त प्रशंसनीय है इसलिये उसका वर्णन करते हैं ॥१३८॥ यद्यपि शिकार खेलना बाह्य अनर्थ क्रियाओंके समान है। इसलिये उसका त्याग अनर्थदण्डत्याग नामके गुणव्रतमें अन्तर्भूत हो जाता है ।।१३९॥ इस अनर्थदण्डत्यागका वर्णन करते समय थोड़ेसे विस्तारके साथ इसका भी अवश्य वर्णन करेंगे तथापि प्रसंग पाकर थोड़ा-सा वर्णन यहाँ भी कर देते हैं ॥१४०।। प्रश्न-भोगोपभोगोंके सिवायं जो क्रियायें की जाती हैं उनको अनर्थदण्ड कहते हैं परन्तु शिकार खेलनेसे आत्माको आनन्द प्राप्त होता है इसलिये शिकार खेलना अनर्थदण्ड नहीं है किन्तु जिस प्रकार पुष्पमाला, चन्दन, स्त्रियां, वस्त्र, आभरण, भोजन आदि समस्त पदार्थ आत्माको सुख देनेवाले हैं, आत्माको सुख देनेके लिये काममें लाये जाते हैं उसी प्रकार शिकार खेलनेसे भी आत्माको सुख प्राप्त होते हैं। इसलिये वह अनर्थदण्ड कभी नहीं हो सकता? ॥१४१-१४२।। उत्तर--परन्तु ऐसी शंका करना ठीक नहीं है। क्योंकि प्रमादकी अधिकता होनेसे अनुभागबन्धकी अत्यन्त तीव्रता हो जाती है और प्रभादको दूर करनेके लिये ही समस्त व्रत पाले जाते हैं। शिकार खेलनेसे अशुभ कर्मोंमें अत्यन्त तीव्र फल देनेकी शक्ति पड़ती है। इसलिये शिकार खेलना भोगोपभोगकी सामग्री नहीं है किन्तु महा प्रमाद रूप है ।।१४३।। माला चन्दन स्त्री आदिके सेवन करने में सुखकी प्राप्तिके लिये केवल भोगोपभोग सेवन करनेके भाव किये जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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