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________________ उक्तं च लाटीसंहिता याः खादन्ति पलं पिबन्ति च सुरां जल्पन्ति मिथ्यावचः स्निह्यन्ति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम् । नीचानामपि दूरवक्रमनसः पापात्मिका कुर्वते लालापानमनिशं न नरकं वेश्यां विहायापरम् ॥९ रजकशिलासदृशीभिः कुक्कुरकर्परसमानचरिताभिः । वेश्याभिर्यदि सङ्गः कृतमिव परलोकवार्ताभिः ॥ १० प्रसिद्ध बहुभिस्तस्यां प्राप्ता दुःखपरम्पराः । श्रेष्ठिना चारुदत्तेन विख्यातेन यथा पराः ॥१३२ यावान् पापभरो यादृग्दारिका दरिकर्मणः । कविनापि न वा तावान् क्वापि वक्तुं च शक्यते ॥१३३ आस्तां च तव्रतादत्र चित्रकादिरुजो नृणाम् । नारका दिगतिभ्रान्तेर्यद् दुःखं जन्मजन्मनि ॥१३४ १९ दुःखोंकी उपेक्षा भी करें तो जिनका हृदय वेश्या सेवनमें लीन हो रहा है उनको इस जन्ममें ही निश्चयसे नरककी अनेक यातनायें या अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं । उनके लिये यह लोक ही, यह जन्म हो नरक बन जाता है ॥ १३१ ॥ Jain Education International कहा भी है- यह पापिनी वेश्या मांस खाती है, शराब पीती है, झूठ बोलती है, केवल धनके लिए प्रेम करती है, अपने धन और प्रतिष्ठाका नाश करती है और कुटिल मनसे या बिना मनके नीच लोगों की लारको भी रात-दिन चाटती रहती है इसलिये कहना चाहिये कि वेश्याको छोड़कर संसारमें और कोई नरक नहीं है । वेश्या ही घोर नरक है । यह वेश्या धोबीकी शिलाके समान है अर्थात् जिस प्रकार धोबीकी शिलापर ऊँच-नीच अनेक घरोंके बुरे से बुरे मैल आकर बहते हैं उसी प्रकार वेश्याके शरीरपर भी ऊंच-नीच अनेक पुरुषोंके घृणितसे घृणित और अत्यन्त निन्दनीय ऐसे वीर्य या लार आदि मल आकर बहते हैं, इसके सिवाय वह वेश्या कुत्तंके मुँहमें लगे हुए हड्डी के खप्परके समान आचरण करती रहती है अर्थात् जिस प्रकार उस खप्परको चबाने वाला कुत्ता उस खप्परको चबाता है और उसके चबानेसे जो मुंहके भीतरी लपटोंसे रुधिरकी धारा बहती है उसको वह कुत्ता समझता है यह मीठी-मीठी रुधिरकी धारा इस खप्पर से ही निकली है उसी प्रकार वेश्या सेवन करनेवाला अपने धनकी हानि करता है और फिर भी उस वेश्याके सेवन करनेसे आनन्द मानता है । ऐसी वेश्याके साथ जो पुरुष समागम करते हैं वे साथ ही साथ परलोककी बातचीत भी अवश्य कर लेते हैं । वेश्याका सेवन करनेवाले पुरुष अवश्य ही परलोक बिगाड़ लेते हैं इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है ॥९-१० ॥ इस वेश्या सेवन में आसक्त होनेके कारण अनेक लोगोंने अनेक प्रकारके दुःख पाये हैं और जन्म-जन्मान्तर तक दुःख पाये हैं सो शास्त्र में प्रसिद्ध ही है । जैसे अत्यन्त प्रसिद्ध सेठ चारुदत्तने इस वेश्या सेवन से ही अनेक प्रकारके दुःख सहे थे ||१३२|| इस संसार में वेश्याएं अपनी वेश्या वृत्तिसे जितने पाप उत्पन्न करती हैं उन सबको कवि भी नहीं कह सकते फिर भला ओरोंकी तो बात क्या है ।। १३३ ।। वेश्या सेवन करनेसे मनुष्योंको इसी जन्म में गर्मी उपदंश आदि अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं । यदि उनको न भी गिना जाय तो भी यह मनुष्य उस वेश्या सेवनके महापापसे अनेक जन्मों तक नरकादिक दुर्गंतियोंके परिभ्रमण से उत्पन्न होनेवाले अत्यन्त घोर दुःख सहता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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