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________________ श्रावकाचार-संग्रह इत्येवमादयोऽप्यन्ये घूतातीचारसंज्ञिकाः । क्षपणीया क्षणादेव द्यूतत्यागोन्मुखैनरैः ॥१२२ मांसस्य भक्षणे दोषाः प्रागेवात्र प्रपञ्चिताः । पुनरुक्तभयाद् भूयो नीता नोद्देशप्रक्रियाम् ॥१२३ कर्म तत्र प्रवृत्तिः स्यावासक्तिर्व्यसनं महत् । प्रवृत्तियंत्र त्याज्या स्यादासक्तस्तत्र का कया ॥१२४ मैरेयमपि नादेयमित्युक्तं प्रागितो यतः । ततोऽद्य वक्तव्यतायां पिष्टपेषणदूषणम् ॥१२५ प्राग्ववत्र विशेषोऽस्ति महानप्यविवक्षितः । सामान्यलक्षणाभावे तद्विशेषक्षतियथा ॥१२६ प्रवृत्तिस्तु क्रियामात्रमासक्तिर्व्यसनं महत् । त्यक्तायां तत्प्रवृत्तौ वै का कथाऽऽसक्तिवर्जने ॥१२७ तदलं बहुनोक्तेन तद्गन्धोऽवद्यकारणम् । स्मृतमानं हि तन्नाम धर्मध्वंसाय जायते ॥१२८ पण्यस्त्री तु प्रसिद्धा या वित्तार्थ सेवते नरम् । तन्नाम दारिका दासी वेश्या पत्तननायिका ॥१२९ तत्यागः सर्वतः श्रेयान् श्रेयोऽयं यततां नृणाम् । मद्यमांसादिदोषान्वै निःशेषान् त्यक्तुमिच्छताम् १३० आस्तां तत्सङ्गमे दोषो दुर्गती पतनं नृणाम् । इहैव नरकं नूनं वेश्याव्यासक्तचेतसाम् ॥१३१ लगाकर दौड़ना या और कोई ऐसा ही काम करना जुआका अतिचार है ।।१२१।। इसी प्रकार ऐसे ही ऐसे और भी कितने ही जुआके अतिचार हैं। जिन गृहस्थोंने जुआ खेलनेका त्याग कर दिया है उनको ऐसे जुआके अतिचारोंका उसी समय त्याग कर देना चाहिए ॥१२२।। मांस भक्षणके दोष पहले विस्तारके साथ कह चुके हैं इसलिए पुनरुक्त दोषके भयसे यहाँ पर उनका वर्णन नहीं किया है ॥१२३॥ मांस भक्षणमें प्रवृत्ति होना मांस कर्म कहलाता है और मांस भक्षणमें आसक्त होना तो मांस भक्षण नामका सबसे बड़ा व्यसन कहलाता है। जब कि मांस भक्षणकी प्रवृत्ति ही त्याज्य है, त्याग करनेके योग्य है, फिर भला आसक्तिको तो कथा हो क्या है ? ॥१२४।। इसी प्रकार मद्य या शराबका त्याग कर देना चाहिए । इसी बातको पहले अच्छी तरह कह चुके हैं। यदि इस समय फिर कहा जायगा तो पिष्टपेषण दूषण होगा अर्थात् जिस प्रकार पिसे हुएको फिर पीसना व्यर्थ है उसी प्रकार शराबके दोष पहले लिख चुके हैं अब फिर लिखना व्यर्थ है ॥१२५।। यद्यपि विशेष कहनेकी यहां पर कुछ विवक्षा नहीं है तथापि मूलगुणोंमें जो मांसका त्याग कराया है उससे यहां पर कुछ विशेषता है। जहां किसीका सामान्य लक्षण कहा जाता है वहाँपर उसका विशेष भी त्याग करा चुके हैं तो फिर विशेष रीतिसे त्याग करानेको भी अवश्य आवश्यकता होती है। वही विशेष त्याग यहाँ पर कराया है ।।१२६।। शराब पीनेकी क्रिया करना शराबकी प्रवृत्ति कहलाती है और उसमें अत्यन्त आसक्त होना व्यसन कहलाता है। जब उसकी प्रवृत्तिका हो त्याग कराया जाता है तो फिर उसमें आसक्त होनेका त्याग तो अवश्य करना चाहिए ॥१२७|| इसलिए अधिक कहनेसे कुछ लाभ नहीं है शराबकी गंध भी महापाप उत्पन्न करनेवाली है। शराबका नाम भी स्मरण मात्रसे धर्मका नाश हो जाता है फिर भला उस शराबको किसी काममें लाने या पीनेसे तो धर्मकी रक्षा कभी हो ही नहीं सकती ॥१२८॥ जो स्त्री केवल धनके लिये पुरुषका सेवन करती है उसको वेश्या कहते हैं । ऐसी वेश्यायें संसारमें प्रसिद्ध हैं। उन वेश्याओंको दारिका, दासी, वेश्या या नगरनायिका आदि नामोंसे पुकारते हैं ॥१२९।। जो मनुष्य अपने आत्माके कल्याणके लिये प्रयत्न करना चाहते हैं और मद्य मांस आदिके समस्त दोषोंको त्याग कर देना चाहते हैं उनको इस वेश्या सेवनका त्याग अवश्य कर देना चाहिए । ऐसे पुरुषोंके लिए पूर्ण रूपसे वेश्या सेवनका त्याग कर देना ही कल्याणकारी है ॥१३०|| वेश्या सेवन करनेसे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं तथा मनुष्योंको नरकादिक दुर्गतियोंमें पड़ना पड़ता है, यदि इन परलोकके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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