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________________ लाटीसंहिता इति संक्षेपतः ख्यातं साम्ना मूलगुणाष्टकम् । अर्थादुत्तरसंज्ञाश्च गुणाः स्युप्रेहमेधिनाम् ॥१११ तांस्तानवसरे तत्र वक्ष्यामः स्वल्पविस्तरात् । इतः प्रसङ्गतो वक्ष्ये तत्सप्तव्यसनोज्झनम् ॥११२ तमांससुरावेश्याऽऽखेटचौर्यपराङ्गनाः। महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद् बुधः ॥११३ अक्षपासादिनिक्षिप्तं वित्ताज्जयपराजयम् । क्रियायां विद्यते यत्र सर्व धूतमिति स्मृतम् ॥११४ प्रसिद्ध द्यूतकर्मेदं सद्यो बन्धकरं स्मृतम् । यावदापन्मयं ज्ञात्वा त्याज्यं धर्मानुरागिणा ॥११५ तत्र बह्वयः कयाः सन्ति द्यूतस्यानिष्टसूचिकाः । रतास्तत्र नराः पूर्व नष्टा धर्मसुतादयः ॥११६ श्रूयते दृश्यते चैव द्यूतस्यैतद्विजम्भितम् । दरिद्राः कतितोपाङ्गा नराः प्रास्ताधिकारकाः ॥११७ न वाच्यं द्यूतमात्रां स्यादेकं तद्व्यसनं मनाक । चौर्यादि सर्वव्यसनपतिरेष न संशयः ॥११८ विद्यन्तेऽत्राप्यतीचारास्तत्समा इव केचन । जेतव्यास्तेऽपि दृग्मार्गे लग्नः प्रत्यग्रबुद्धिभिः ॥११९ अन्योन्यस्येर्षया यत्र विजिगीषा द्वयोरिति । व्यवसायादृते कर्म धूतातीचार इष्यते ॥१२० यथाऽहं धावयाम्पत्र यूयं चाऽप्यत्र धावत । यदातिरिक्तं गच्छेयं त्वत्तो गृह्णामि चेप्सितम् ॥१२१ संक्षेपमें गृहस्थोंके समुदाय रूप मूलगुणोंका वर्णन किया । इसके आगे जो गृहस्थोंके अणुव्रत गुणव्रत शिक्षाव्रत आदि गुण हैं, व्रत हैं, वे सब अर्थात् उत्तरगुण कहलाते हैं ॥१११।। उन अणुव्रत, गुणवत तथा शिक्षाव्रतोंका वर्णन थोड़ेसे विस्तारके साथ उनके कथन करनेके समय करेंगे। इस समय प्रसंग पाकर सातों व्यसनोंके त्यागका वर्णन करते हैं ॥११२।। जुआ खेलना, मांस भक्षण करना, शराब पीना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना ये सातों महापाप व्यसन कहलाते हैं। बुद्धिमान् जनोंको इन सातों व्यसनोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥११३।। जिस क्रियामें खेलनेके पासे डालकर धनकी हार-जीत होती है वह सब जूआ कहलाता है अर्थात् हार जीतकी शर्त लगाकर तास खेलना, चौपड़ खेलना, शतरंज खेलना, नक्कोमूठ खेलना आदि सब जुआ कहलाता है ॥११४|| यह जुआ खेलना संसार भरमें प्रसिद्ध है। उसी समय महा अशुभ कर्मोंका बंध करनेवाला है और समस्त आपत्तियोंको उत्पन्न करनेवाला है ऐसा समझकर धर्ममें प्रेम करनेवाले श्रावकोंको इसका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥११५॥ जो लोग इस जुआमें लीन हुए हैं वे सब नष्ट हुए हैं। युधिष्ठिर आदिको इस जुआ खेलनेके ही कारण अनेक आपत्तियां उठानी पड़ी थी, जुआ खेलनेवालोंको अनेक आपत्तियाँ उठानी पड़ी और अनेक दुःख भोगने पड़े। इन सब चरित्रोंको कहनेवाली बहुत सी कथाएं हैं ।।११६।। इस जुआ खेलने का फल प्रतिदिन सुना जाता है और प्रतिदिन देखा जाता है। इस जुआ खेलनेसे लोग दरिद्र हो जाते हैं, उनके अंग उपांग सब काटे जाते हैं तथा और भी अनेक प्रकारके दुःख उन्हें भोगने पड़ते हैं ॥११७॥ इस जुआ खेलनेको एक हो व्यसन नहीं समझना चाहिये और न इसे छोटा सा व्यसन समझना चाहिये। किन्तु यह जुआ खेलनेका व्यसन चोरी आदि सब व्यसनोंका स्वामी है इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं है ।।११८|| इस जुआ खेलनेके त्यागरूप व्रतके कितने ही अतिचार हैं जो कि जुआ खेलनेके ही समान हैं इसलिए सम्यग्दर्शनके मार्गमें लगे हुए तीव्र बुद्धि श्रावकोंको इन अतिचारोंका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए ॥११९।। जैसे अपने-अपने व्यापारके कार्योके सिवाय कोई भी दो पुरुष परस्पर एक दूसरेकी ईर्ष्यासे किसी भी कार्य में एक दूसरेको जीतना चाहते हों तो उन दोनोंके द्वारा उस कार्यका करना भी जुआ खेलनेका अतिचार कहलाता है ॥१२०।। जैसे मैं यहाँसे इस स्थानसे दौड़ना प्रारम्भ करता हूँ तू भी मेरे साथ दौड़ लगा। हम दोनोंमेंसे जो मैं आगे निकल जाऊँगा तो तुझसे अपनी इच्छा पूरी कर लूंगा। इस प्रकारको शर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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